उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘रजनी की भाभी तो रहेगी ही। मैं यह नहीं कह रहा। मेरे कहने का मतलब यही है कि शारदा का पति अब डायरेक्टर ऑफ़ हैल्थ हो गया है।’’
‘‘इन्द्र भैया! कैसी बहकी-बहकी बातें करने लगे हो? देखो, आज तुम हमारे घर पर भोजन करने के लिए आओगे। प्रोफ़ेसर साहब अभी तुमको निमंत्रण देने आयेंगे।’’
‘‘आज तो पिताजी गाँव चलने को कह रहे हैं। मैं भी यही विचार कर रहा हूँ। पीछे जाने का अवकाश मिलेगा अथवा नहीं, कहा नहीं जा सकता। परन्तु एक बात और भी है। आज तुम्हारे घर खाने जाऊँ तो कल राधा भी कहेगी। यह सब तो मुझसे नहीं हो सकेगा। तनिक ठहरो, मुझको अपना घर बना लेने दो, फिर वहाँ दावत किया करेंगे।’’
‘‘मैं समझी थी कि तुम विलायत हो आए हो तो अपने भारत के रीति-रिवाज को व्यर्थ मान छोड़ बैठे हो। रमाकान्त भी यही कह रहा था।’’
‘‘वही तो रजनी बहन छोड़ने से मना कर रही है।’’
‘‘झूठ! भला मैंने कब मना किया है?’’
‘‘मैं यही तो कहने जा रहा था कि शारदा अब एक बड़े अफ़सर की पत्नी बन रही है। इस कारण इसको अपनी पदवी के अनुकूल कुछ परिवर्तन लाना ही होगा।’’
‘‘ओह! अब समझी। पहले क्यों नहीं बताया? वह तो यह सीख जाएगी। मेरा विचार है कि कुछ तो सीख भी गई है।’’
‘‘क्या सीखी हो, शारदा?’’
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