उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
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पार्टी पर आए लोग विदा हो रहे थे। रायसाहब लोगों को विदा कर रहे थे। परन्तु शारदा कोठी में रजनी के कमरे में रजनी की गोद में सिर रखे रो रही थी।
शारदा ने बताया था कि ऐरा-गैरा नत्थू खैरा, उसके अंग-प्रत्यंग की प्रशंसा करते थे। जो वस्तु वह अपने पति के लिए ही सुरक्षित रखे हुए है, उसको ये आवारा लोग देख-देख प्रसन्न होते थे।
इस पर रजनी ने कह दिया, ‘शारदा! कुत्तों के भौंकने से क्या हाथी अपनी चाल छोड़ देते हैं? देखों, यह बात तो तुम्हारे पति को विचार करनी चाहिए थी कि तुम्हारे वक्षोज, तुम्हारी लता समान बाँहों आदि का सौन्दर्य केवल उसके ही देखने की वस्तु है। यह प्रदर्शन की वस्तु नहीं। परन्तु तुमको क्या? तुम तो अपने पति की इच्छा पर ही यह पहरावा पहन और ऐसे बाल बनवाकर पार्टी में गई थीं।
‘‘देखो भाभी!’’ रजनी ने आगे कह दिया, ‘‘तुम अपने मन की पवित्रता के लिए उत्तरदायी हो। दूसरो के कलुषित मन और विचारों की जिम्मेदारी तुम पर नहीं। तुम अपने पति की प्रसन्नता में, जब तक तुम अपनी आत्मा का हनन नहीं करतीं, बाधा क्यों बनती हो?’’
इस प्रकार की बातों से शारदा को सांत्वना मिली। यद्यपि वह इस प्रकार के सौन्दर्य-प्रदर्शन को नैतिक पतन की ओर अभियान मानती थी, परन्तु वह कह नहीं सकती थी कि लोगों की प्रशंसा से उसके मन में भी विकार उत्पन्न हो सकता है। इसलिए बात समाप्त हो गई।
इन्द्रनारायण अपने मेहमानों को विदा कर अपने कमरे की ओर जा रहा था कि उसकी दृष्टि रजनी के कमरे में शारदा पर जा पड़ी। वह रुक गया। उसने कमरे के द्वार पर खड़े होकर शारदा को बुलाया, ‘‘यहाँ क्या हो रहा है, शारदा?’’
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