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उपन्यास >> पाणिग्रहण

पाणिग्रहण

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :651
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 8566
आईएसबीएन :9781613011065

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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव


‘‘तब तो आपका उससे घना सम्बन्ध है?’’

‘‘मेरे-उसके सम्बन्ध के विषय में रजनी जानती है।’’

‘‘अब अपनी बहन को अपनी सफाई के लिए बीच में ला रहे हैं? आपकी जो इच्छा है करिए। मैं आपको मना नहीं कर रही।’’

‘‘तो तुमको मुझ पर विश्वास नहीं?’’

‘‘आज से पहले था। मुझको यह मालूम नहीं था कि आप जुआ भी खेलते हैं।’’

‘‘वह तो दिल बहलाने के लिए था।’’

‘‘हाँ, उस दिन शराब की बात हुई तो आपने कह दिया कि चीफ़ सेक्रेटरी के कहने पर आपने जरा-सी चख ली थी। आप बड़े अफ़सर हैं, आपकी मजबूरी है।

‘‘मगर मैं विचार करती हूँ कि मैं तो अफ़सर नहीं। मुझको तो किसी प्रकार की मजबूरी नहीं। मैं क्यों इस पाप-कुंड में जाती हूँ?’

‘‘तुम मेरे लिए जाती हो। मुझको तुम्हारी वहाँ आवश्यकता होती है।’’

‘‘अब रहने दीजिए। कितने रुपये हारे हैं आपने आज?’’

‘‘किसी स्थान से ऐसे ही मिल गए थे। मैंने उनको अपने प्रयोग में लाना ठीक नहीं समझा। लगभग सब हार आया हूँ।’’

इतना कह इन्द्र ने अपने कोट की जेब में हाथ डालकर यह देखना चाहा कि उनमें से कितने बचे हैं, परन्तु जेब कतरी हुई थी। इसका अर्थ यह था कि उसके अपने रुपये भी चोरी हो गए थे।

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