उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
|
410 पाठक हैं |
संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘मैंने पूछा था कि वह इन्द्र से अब बोलती क्यों नहीं? तो उसने यह बात कह टाल दिया कि उसको, यूरोप के महल देखकर आने के बाद, यह भारत फीका दिखाई देने लगा है।
‘‘मैं आपसे मिलने चली आयी हूँ। मेरा कहना है कि आप क्लब में अब कभी भी न जाइए। बात बहुत बिगड़ गयी है।’’
‘‘क्या बिगड़ गयी है?’’ शारदा ने पूछ लिया।
‘‘एक टैक्निकल कॉलेज के प्रिन्सिपल की बीवी पर भी वैसी ही शर्त लग गयी थी, जैसी आप पर लगी है। कुछ दिन हुए, वह आयी तो एक मिस्टर जोशी उसको मोटर में बिठाकर न जाने कैसे अपने घर ले गए। दो घंटे बाद उसको क्लब में उतारकर भाग गए। प्रिन्सिपल की बीवी जब आयी तो उसका मुख विवर्ण हो रहा था। उसके हाथ-पाँव काँप रहे थे। वहीं मैं उससे मिल गयी। मैंने पूछ लिया, ‘मिसेज बिन्द्रा! क्या बात है? तबीयत तो ठीक है?’’
‘‘उसने एक कुर्सी पर मिट्टी के ढेर की भाँति बैठते हुए पूछा, ‘आपने बिन्द्रा को देखा है क्या?’
‘हाँ, वे आपको ढूँढ़ रहे थे।’
‘‘इससे वह अचेत हो गयी। इसके साथ ही उसका सिर सामने रखी तिपाई पर लुढ़क गया। मुझको कुछ संदेह हुआ तो मैं उसको उठवाकर ग्रीन रूम में ले गयी। वहाँ पंखे के नीचे मैंने उसके कपड़ों को ढीला किया, मुख पर यू० डी० कोलोन छिड़का और हिलाया-डुलाया तो उसे होश आ गया। वह उठकर बैठी तो कहने लगी, ‘मुझको मेरे घर छोड़ आओ।’
‘‘मैं उसको अपनी मोटर में बिठाकर उसके घर ले गयी।’’
|