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उपन्यास >> प्रगतिशील

प्रगतिशील

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8573
आईएसबीएन :9781613011096

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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।


8

इलियट ने लैसिली को पत्र लिखा था। वह पत्र पाकर लैसली विस्मित ही हुई थी। उसका विचार था कि इलियट ब्राजील में अपने पिता के घर में होगी। अब उसका दिल्ली से पत्र आने पर वह आश्चर्यचकित रह गई। साथ ही उसके पत्र में मदन का पक्ष लेकर उसका बच्चा अपने पास रख लेने के लिए, उसको महास्वार्थी सिद्ध किया गया था।

उसने कई मास तक इलियट के पत्र पर विचार कर उसे पत्र लिखा, ‘‘मैं तुम्हारे पत्र का उत्तर देने का सामर्थ्य नहीं रखती। उस पत्र का कुछ भी उत्तर मुझे सूझ नहीं रहा है। मैं विचार कर रही हूं, जब उसका उत्तर मेरी समझ में आ जायेगा तो मैं तुमको लिख दूंगी।

‘‘परन्तु क्या मैं पूछ सकती हूं कि तुम वहां क्या कर रही हो?’’

इलियट ने इस पत्र के विषय में मदन और महेश्वरी को कुछ नहीं बताया। कुछ बताने के लिए उसमें था भी नहीं। परन्तु अपने विषय में उसने लैसली को पत्र लिख दिया।

उसने लिखा, ‘‘चुम्बक की ओर लोहे की भांति खिंची हुई, मैं यहां चली आई थी। यहां आकर मेरी नौका ऐसे किनारे पर लगी कि जहां सदा बहार ही रहती है। इस पर ऐसे-ऐसे फूल खिले दिखाई देते हैं जो उस देश में, जहां मैं रहती थी, और जहां अब तुम रह रही हो, दिखाई नहीं देते।’’

‘‘यहां आकर कुछ ऐसा प्रतीत होने लगा है कि एक नई दुनिया में आ गई हूं। साधारण-काम काज में व्यस्त व्यक्ति, साधारण वृत्ति वाले और उद्योग-धन्धों के प्रसार से पीड़ित लोग भी ऐसा समय निकाल लेते हैं, जब वह इस दुखी संसार से बाहर निकल संसार के अतिरिक्त कुछ देखने लगते हैं। पहले मैं उनको मूर्ख समझती थी। परन्तु अब उस समय की इलियट को मूर्ख मानने लगी हूं। मैं स्वयं को अपने शरीर से पृथक पदार्थ मानने लगी हूं।

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