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उपन्यास >> प्रगतिशील

प्रगतिशील

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8573
आईएसबीएन :9781613011096

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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।


‘‘मुझे एक ऐसी प्रक्रिया बताई गई है जिससे मैं अपने में तीन अंशों को पृथक्-पृथक् करके देखने की शक्ति पा गई हूं। आत्मा, मन और शरीर के संयोग से प्राणी बना है। मैं प्राणी हूं और उस प्रक्रिया से अब मैं स्वयं का विश्लेषण करने की दृष्टि पा रही हूं।

‘‘अब मैं देखती हूं कि अमेरिका में प्राणी के शरीर ही शरीर दिखाई देता हैं। यहां आकर तो प्राणी के अन्य दो अंशो के भी दर्शन पा रही हूं। मेरी समझ में कुछ ऐसा आ रहा है कि तुमको भी शरीर से परे कुछ दिखाई देने लगा है। तभी तो तुमको मदन के विषय में अपनी भूल समझ में आने लगी है।

‘‘तुमने मदन को वचन दिया था। यह वचन एक शरीर ने दूसरे शरीर को दिया था। शरीर तो वचन देते नहीं। वचन देने वाला आत्मा और मन है। और अपने वचन पर स्थिर रहने को सत्य पर आरूढ़ रहना कहते हैं। यहां भारत में सत्य की बहुत बड़ी महिमा है।

‘‘यहां का अनपढ़ से अनपढ़ व्यक्ति जानता है–

‘सांच बरोबर तप नहीं, झूठ बरोबर पाप।

जाके हृदय सांच है, ताके हृदय आप।।’

‘‘मन की सहायता से आत्मा सत्य का उच्चारण करता है। मेरी समझ में कुछ ऐसा आया है कि तुम्हारा आत्मा तुमको फटकार रहा है कि तुमने अपने वचन को असत्य सिद्ध कर बहुत बुरा किया है।

‘‘क्या मैं गलत कह रही हूं?’’

इलियट को इस पत्र का उत्तर पांच वर्ष तक नहीं मिला। मदन के दो और सन्तान हो गई थीं। अब उसके दो लड़के और एक लड़की थी। एक बहुत ही सन्तुष्ट परिवार था उसका।

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