उपन्यास >> प्रगतिशील प्रगतिशीलगुरुदत्त
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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।
मदन की दादी पोतों-परपोतों को घर में देख गद्गद हो जाया करती थी। महेश उनके पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा में लीन रहती थी। मदन अब उपनिषद् का अध्ययन करता। एक संस्कृत का पण्डित उसको संस्कृत पढ़ाने के लिए आया करता था। पांच वर्ष से इलियट भी उससे पढ़ रही थी। इससे जीवन सरस और सुलभ होता जा रहा था।
महेश्वरी का पहला बच्चा सात वर्ष का हो गया और वह स्कूल में जाने लगा था। दूसरा बच्चा अभी घर पर ही पढ़ता था। बच्ची तो अभी दो वर्ष की ही थी।
इलियट अब साधुओं की भांति भगवा वस्त्र धारण करती थी। कभी-कभी ऋषिकेश संन्यासियों के आश्रम में जाती तो महीनों वहां पर बिता आती। मदन इसे निपट भौतिकवाद की प्रतिक्रिया मात्र ही मानता था। इलियट इस विवेचना की चिन्ता न करती हुई अपनी धुन में सवार आगे चली जा रही थी।
एक दिन लैसली अपने बच्चे के साथ दिल्ली आ गई। वह सीधी इलियट के घर पर ही गई। मकान को ताला लगा था। पड़ोसियों से मालूम करने पर विदित हुआ कि वह ऋषिकेश गई हुई है। वहां से वह मदन के घर पहुंची।
एक विशाल कोठी के बहार एक बुढ़िया जिसके घुटनों में एक लड़की खेल रही थी, के सम्मुख जाकर वह खड़ी हो गई। लैसली ध्यान से लड़की को देखने लगी। उसे वह महेश्वरी का छोटा-सा मॉडल प्रतीत हुआ। एक योरपियन औरत को अपने साथ एक आठ वर्ष के बच्चे को लिये टैक्सी से उतरते देख और फिर अपने सम्मुख आ खड़े होते देख बुढ़िया ने नजर उठाई और मदन की प्रतिलिपि सामने खड़ी देख पूछ लिया, ‘‘तुम लक्ष्मी हो?’’
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