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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578
आईएसबीएन :978-1-61301-111

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


‘अच्छी बात है, मत जाना। नाम और पता लिखना ही पड़ेगा।’

‘नहीं बाबा, मैं नाम और पता भी न लिखाऊंगी। इसी से तो कहती थी कि मैं वनिता-भवन में न जाऊंगी।’

बूढ़े ने कुछ सोचकर कहा–अच्छा चलो, मैं अमृत बाबू को समझा दूंगा। जो बात तुम न बताना चाहोगी, उसके लिए वह तुम्हें मजबूर न करेंगे। मैं उन्हें अकेले में समझा दूंगा।

जरा दूर पर एक इक्का मिल गया। बूढ़े ने उसे ठीक कर लिया। दोनों उस पर बैठकर चले।

पूर्णा इस समय अपने को गंगा की लहरों में विसर्जित करने जाती। तो कदाचित् इतनी दुःखी और सशंक न होती।

१३

बाबू दाननाथ के स्वभाव में मध्यम न था। वह जिससे मित्रत्रा करते थे, उसके दास बन जाते थे, उसी भांति जिसका विरोध करते थे, उसे मिट्टी में मिला देना चाहते थे। कई महीने तक वह कमलाप्रसाद के मित्र बने रहे। बस, जो कुछ थे, कमलाप्रसाद थे। उन्हीं के साथ घूमना, उन्हीं के साथ उठना-बैठना। अमृतराय की सूरत से भी घृणा थी–उन्हीं की आलोचना करने में दिन गुजरता था। उनके विरुद्ध व्याख्यान दिए जाते थे, लेख लिखे जाते थे और जिस दिन प्रेमा ने टाउनहॉल में जाकर उनके कुचक्रों को मटियामेट कर दिया, उस दिन तो वह अमृतराय के खून के प्यासे हो रहे। प्रेमा से कुछ न कहा, इस विषय की चर्चा तक न की। प्रेमा जवाब देने को तैयार बैठी थी, लेकिन उससे बोलना-चालना छोड़ दिया। भाई पर तो जान देते थे और बहन की सूरत से भी बेजार बल्कि यों कहिए कि जिन्दगी ही से बेजार थे। उन्होंने जिस आनन्दमय जीवन की कल्पना की वह दुस्सह रोग की भांति उन्हें घुमाए डालता था। उनकी दशा उस मनुष्य की-सी थी जो एक घोड़े के रंग, रूप और चाल देखकर उस पर लट्टू हो जाए, पर हाथ आ जाने पर उस पर सवार न हो सके। उसकी कनौतियां, उसके तेवर, उसका हिनहिनाना, उसका पांव से जमीन खुरचना ये सारी बातें उसने पहले न देखी थीं। अब उसके पुट्ठे पर हाथ रखते भी शंका होती है। जिस मूर्ति की कल्पना करके दाननाथ एक दिन मन में फूल उठते थे, उसे अब सामने देखकर उनका चित्त लेशमात्र भी प्रसन्न न होता था। प्रेमा जी-जान से उनकी सेवा करती थी; उनका मुंह जोहा करती थी, उन्हें प्रसन्न करने की चेष्टा किया करती थी; पर दाननाथ को उसकी भाव-भंगिमाओं में बनावट की गंध आती। वह अपनी भूल पर मन-ही-मन पछताते थे और उनके भीतर की यह ज्वाला द्वेष का रूप धारण करके मिथ्या दोष लगाने और उनका विरोध करने में शांति लाभ करती थी। लेकिन शीघ्र ही मनस्ताप को शांत करने का यह मार्ग भी उनके लिए बंद हो गया।

संध्या का समय था। दाननाथ बैठे कमलाप्रसाद की राह देख रहे थे! आज वह अब तक क्यों नहीं आए। आने का वादा कर गए थे, फिर आए क्यों नहीं? यह सोचकर उन्होंने कपड़े पहने और कमलाप्रसाद के घर जाने को तैयार हुए कि एक मित्र ने आकर आज की दुर्घटना की खबर सुनाई। दाननाथ को विश्वास न हुआ। बोले–आपने यह गप सुनी कहां?

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