उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
‘वहां अनाथ स्त्रियों का पालन किया जाता है। कैसी ही स्त्री हो, वह लोग बड़े हर्ष से उसे अपने यहां रख लेते हैं। अमृतराय बाबू को दुनिया चाहे कितना ही बदनाम करे; पर काम उन्होंने बड़े धैर्य का किया है। इस समय पचास स्त्रियों से कम न होंगी। सब हंसी-खुशी रहती हैं। कोई मर्द अंदर नहीं जाता। अमृत बाबू आप भी अंदर नहीं जाते। हिम्मत का धनी जवान है, सच्चा त्यागी इसी को देखा।’
पूर्णा का दिल बैठ गया। जिस विपत्ति से बचने के लिए उसने प्राणान्त कर देने की ठानी थी; वह फिर सामने आती हुई दिखाई दी। अमृतराय उसे देखते ही पहचान जाएंगे। उनके सामने वह खड़ी कैसे हो सकेगी। कदाचित् उसके पैर कांपने लगेंगे, और वह गिर पड़ेगी। वह उसे हत्यारिनी समझेंगे! जिससे वह एक दिन साली के नाते विनोद करती थी, वह आज उनके सम्मुख कुलटा बनकर जाएगी।
बूढ़े ने पूछा–देर क्यों करती हो बेटी, चलो मैं तुम्हें वहां पहुंचा दूं। विश्वास मानो, वहां तुम बड़े आराम से रहोगी।
पूर्णा ने कहा–मैं वहां न जाऊंगी बाबा!
‘वहां जाने में क्या बुराई है?’
‘यों ही, मेरा जी नहीं चाहता।’
बूढ़े ने झुंझलाकर कहा–तो यह क्यों नहीं कहती कि तुम्हारे सिर पर दूसरी ही धुन सवार है।
यह कहकर बूढ़ा आगे बढ़ा। जिसने स्वयं कुमार्ग पर चलने का निश्चय कर लिया हो, उसे कौन रोक सकता है?
पूर्णा बूढ़े को जाता देखकर उसके मन का भाव समझ गई। क्या अब भी वह वनिता भवन जाने से इन्कार कर सकती थी? बोली–बाबा तुम भी मुझे छोड़कर चले जाओगे?
बूढ़ा–कहता तो हूं कि चलो वनिता भवन पहुंचा दूं।
‘वहां मुझे बाबू अमृतराय के सामने तो न जाना पड़ेगा?’
‘यह सब मैं नहीं जानता। मगर उनके सामने जाने में हर्ज क्या है? वह बुरे आदमी नहीं है।’
‘अच्छे-बुरे की बात नहीं है बाबा। मुझे उनके सामने जाते लज्जा आती है।’
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