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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578
आईएसबीएन :978-1-61301-111

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


दाननाथ ने आश्वासन दिया कि प्रेमा कल अवश्य आएगी! दोनों मित्र यहां से चले तो सहसा तीन बजने की आवाज आई। दाननाथ ने चौंककर कहा–अरे! तीन बज गए। इतनी जल्द?

अमृत०–और तुमने अभी तक भोजन नहीं किया! मुझे याद न रहा।

दाननाथ–चलो अच्छा ही हुआ! तुम्हारा एक वक्त का खाना बच गया।

अमृत०–अजी मैंने तुम्हारे दावत की बड़ी-बड़ी तैयारियाँ की थीं। इतना खर्च किया गया और रसोइए ने खबर तक न दी।

दान०–हां साहब, आपके ५० रुनसे से तो कम न बिगड़े होंगे। मैं बिना भोजन किए ही मानने को तैयार हूँ। रसोइया भी होशियार है। खूब सिखाया है।

अमृत०–होशियार नहीं पत्थर। दस बजे खिलाता, तो चपातिया खाकर उठ जाते। मुझे दावत कराने का रास्ता यश मिल जाता। अब तो खूब खुल गई है, थाली पर पिल पड़ोगे। इधर तो शिकायत यह कि देर की, उधर हानि यह कि दूने की खबर लोगे। मुझ पर तो दोहरी चपत पड़ी।

घर जाकर अमृतराय ने रसोइए को खूब डांटा–तुमने क्यों नहीं इत्तला की कि भोजन तैयार है?

रसोइए ने कहा–हुजूर बाबू साहब के साथ आश्रम में थे। मुझे डर लगता था कि आप खफा न हो जाएं।

बात ठीक थी। अमृतराय रसोइए को कई बार मना कर चुके थे कि जब मैं किसी के साथ रहा करूँ, तो सिर मत सवार हो जाया करो। रसोइए का कोई दोष न था। बेचारे बहुत झेंपे। भोजन आया। दोनों मित्रों ने खाना शुरू किया। भोजन निरामिष था, पर बहुत ही स्वादिष्ट।

दाननाथ ने चुटकी ली–यह भोजन तो तुम-से ब्रह्यचारियों के लिए नहीं है।

तुम्हारे लिए एक कटोरा दूध और दो चपातियां काफी हैं।

अमृत०–क्यों भाई?

दान०–तुम्हें स्वाद से क्या प्रयोजन?

अमृत०–जी नहीं, मैं उन ब्रह्मचारियों में नहीं हूँ। पुष्टिकारक और स्वादिष्ट भोजन को मैं मन और बुद्धि के लिए आवश्यक समझता हूँ। दुर्बल शरीर में स्वस्थ मन नहीं रह सकता। मरियल घोड़े पर सवार होकर अगर तुम गिरने से बच ही गए तो क्या काम किया?

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