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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578
आईएसबीएन :978-1-61301-111

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


भोजन करने के बाद दोनों मित्रों में आश्रम के सम्बंध में बड़ी देर तक बातें होती रहीं। आखिर शाम हुई और दोनों गंगा की सैर करने चले।

सांध्य समीर मन्दगति से चल रहा था, और बजरा-हल्की लहरों पर थिरकता हुआ चला जाता था। अमृतराय डांड लिए बजरे को खे रहे थे और दाननाथ तख्ते पर पांव फैलाए लेटे हुए थे। गंगादेवी भी सुनहले आभूषण पहने मधुर स्वरों में गा रही थीं आश्रम का विशाल भवन सूर्यदेव के आशीर्वाद में नहाया हुआ खड़ा था।

दाननाथ कुछ देर तक लहरों से खेलने के बाद बोले–आखिर तुमने क्या निश्चय किया है?

अमृतराय ने पूछा–किस विषय में?

दान०–यही अपनी शादी के विषय में।

अमृत०–मेरी शादी की चिन्ता में तुम क्यों पड़े हुए हो?

दान०–अजी तुमने प्रतिज्ञा की थी, याद है। आखिर उसे तो पूरा करोगे?

अमृत०–मैं अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर चुका।

दान०–झूठे हो।

अमृत०–नहीं सच!

दान०–बिल्कुल झूठ। तुमने अपना विवाह कब किया?

अमृत०–कर चुका, सच कहता हूँ।

दाननाथ ने कुतूहल से उनकी ओर देखकर कहा–क्या किसी को चुपके से घर में डाल लिया?

अमृत०–जी नहीं, खूब ढोल बजाकर किया और स्त्री भी ऐसी पाई, जिस पर सारा देश मोहित है?

दान०–अच्छा, तो कोई अप्सरा है।

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