उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
अमृत०– जी हा, अप्सराओं से भी सुन्दर?
दान०–अब मेरे हाथ से पिटोगे। साफ-साफ बताओ कब तक विवाह करने का इरादा है?
अमृत०–तुम मानते ही नहीं तो मैं क्या करूँ। मेरा विवाह हो गया है।
दान०–कहां हुआ?
अमृत०–यहीं बनारस में।
दान०–और स्त्री क्या आकाश में है, या तुम्हारे हृदय में?
अमृत०–अभी देखे चले आते हो और अब भी देख रहे हो।
दाननाथ ने, सोचकर कहा–कौन है पूर्णा तो नहीं?
अमृत०–पूर्णा को मैं अपनी बहन समझता हूँ?
दान०– तो फिर कौन है? तुमने मुझे क्यों न दिखाया?
अमृत०– घण्टों तक दिखाता रहा, अब और कैसे दिखाता। अब भी दिखा रहा हूँ। वह देखो। ऐसी सुन्दरी तुमने और कहीं देखी हैं? मैं ऐसी-ऐसी और कई जाने उस पर भेंट कर सकता हूँ।
दाननाथ ने आशय समझकर कहा–अच्छा अब समझा।
अमृत०–इसके साथ मेरा जीवन बड़े आनन्द से कट जाएगा। यह एक पत्नीव्रत का समय है। बहु-विवाह के दिन गए।
दाननाथ ने गंभीर भाव से कहा। मैं जानता कि तुम यों प्रतिज्ञा पूरी करोगे, तो मैं प्रेमा से हर्गिज विवाह न करता। फिर देखता कि तुम बचकर कैसे निकल जाते।
अमृत के हाथ रुक गए। उन्हें डांड चलाने की सुधि न रही। बोले–यह तुम्हें उसी वक्त समझ लेना चाहिए था, जब मैंने प्रेमा की उपासना छोड़ी। प्रेमा समझ गई थी। चाहे पूछ लेना।
पृथ्वी ने श्यामवेष धारण कर लिया था और बजरा लहरों पर थिरकता हुआ चला जाता था। उसी बजरे की भांति अमृतराय का हृदय भी आन्दोलित हो रहा थ, दाननाथ निस्पन्द बैठे हुए थे, मानों वज्राहत हो गए हों। सहसा उन्होंने कहा–भैया तुमने मुझे धोखा दिया!!
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