उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
३
होली का दिन आया। पण्डित वसन्तकुमार के लिए यह भंग पीने का दिन था। महीनों पहले से भंग मंगवा रखी थी। अपने मित्रों को भंग पीने का नेवता दे चुके थे। सवेरे उठते ही पहला काम जो उन्होंने किया, वह भंग धोना था।
मुहल्ले के दो-चार लौंडे और दो-चार बेफिकरे जमा हो गए। भंग धुलने लगी, कोई मिर्च पीसने लगा, कोई बादाम छीलने लगा, दो आदमी दूध का प्रबन्ध करने के लिए छूटे, दो आदमी सिल-बट्टा धोने लगे। खासा हंगामा हो गया।
सहसा बाबू कमलाप्रसाद आ पहुंचे। यह जमघट देखर बोले–क्या हो रहा है? भई, हमारा हिस्सा भी है न?
वसन्तकुमार ने आगे बढ़कर स्वागत किया, बोले–जरूर-जरूर, मीठी लीजिएगा कि नमकीन?
कमला–अजी मीठी पिलाओ, नमकीन क्या मगर यार, केसर और केवड़ा जरूर हो, किसी को भेजिए मेरे यहां से ले आए। किसी लौंडे को भेजिए जो मेरे घर जाकर प्रेमा से मांग लाए। कहीं धर्मपत्नी जी के पास न चला जाए, नहीं तो मुफ्त गालियां मिलें। त्योहार के दिन उनका मिजाज गरम हो जाया करता है। यार वसन्त कुमार, धर्मपत्नियों को प्रसन्न रखने का कोई आसान नुस्खा बताओ। मैं तो तंग आ गया।
वसन्त कुमार ने मुस्काराकर कहा–हमारे यहां तो यह बीमारी कभी नहीं होती।
कमला–तो यार, तुम बड़े भाग्यवान् हो। क्या पूर्णा तुमसे कभी नहीं रूठती?
वसन्त०–कभी नहीं।
कमला०–कभी किसी चीज के लिए हठ नहीं करती?
वसन्त०–कभी नहीं।
कमला०–तो यार, तुम बड़े भाग्यवान हो, यहां तो उम्र कैद हो गई है। अगर घड़ी भर घर से बाहर रहूं, तो जवाब-तलब होने लगे। सिनेमा रोज जाता हूं और रोज घण्टों मनावन करनी पड़ती है।
वसन्त०–तो सिनेमा देखने न जाया कीजिए।
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