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उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578
आईएसबीएन :978-1-61301-111

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


मगर इधर कुछ दिनों से साहित्य रचना में उनका अनुराग कुछ ठंडा होता जाता था। उन्हें कुछ ऐसा जान पड़ने लगा था कि साहित्य-प्रेमियों को उनसे वह पहले की सी भक्ति नहीं रही। इधर उन्होंने जो दो पुस्तकें बड़े परिश्रम से लिखी थीं और जिनमें उन्होंने अपने जीवन के सारे अनुभव और कला की सारी प्रौढ़ता भर दी थी उनका कुछ विशेष आदर न हुआ। इसके पहले उनकी जो रचानएं निकली थीं, उन्होंने साहित्य संसार में हलचल मचा दी थी। हर एक पत्र में उन पुस्तकों की विस्तृत आलोचनाएं हुई थी, साहित्य-संस्थाओं ने उन्हें बधाईयां दी थीं. साहित्य मर्मज्ञों ने गुणग्राहकता से भरे पत्र लिखे थे। यद्यपि उन रचनाओं का देवकुमार की नजर में अब उतना आदर न था, उनके भाव उन्हें भावुकता के दोष पूर्ण लगते थे, शैली में भी कृत्रिमता और भारीपन था पर जनता की दृष्टि में वही रचनाएं अब भी सर्वप्रिय थीं। इन नई कृतियों से बिना बुलाए मेहमान सा आदर किया गया, मानों साहित्य-संसार संगठित हो कर उनका अनादर कर रहा हो। कुछ तो यों भी उनकी इच्छा विश्राम करने की रही थी, इस शीतलता ने उस विचार को और दृढ़ कर दिया। उनके दो-चार सच्चे साहित्यिक मित्रों ने इस तर्क से उनको ढांढस देने की चेष्टा की कि बड़ी भूख में मामूली भोजन भी जितना प्रिय लगता है, भूख कम हो जाने पर उससे कहीं रुचिकर पदार्थ भी उतने प्रिय नहीं लगते, पर इससे उन्हें आश्वासन न हुआ। उनके विचार में किसी साहित्यकार की सजीवता का यही प्रमाण था कि उसकी रचनाओं की भूख जनता में बराबर बनी रहे। जब वह भूखे न रहे तो उसको क्षेत्र से प्रस्थान कर जाना चाहिए।

उन्हें केवल पंकजा के विवाह की चिन्ता थी और जब उन्हें एक प्रकाशक ने उनकी पिछली दोनों कृतियों के पांच हजार दे दिए तो उन्होंने इसे ईश्वरीय प्रेरणा समझा और लेखनी उठा कर सदैव के लिए रख दी। मगर इन छह महीनों में उन्हें बार-बार अनुभव हुआ कि उन्होंने वानप्रस्था लेकर भी अपने को बन्धनों से न छुड़ा पाए। शैव्या के दुराग्रह की तो उन्हें कुछ ऐसी परवाह न थी। वह उन देवियों में थी। जिनका मन संसार से कभी नहीं छूटता। उसे अब भी अपने परिवार पर शासन करने की लालसा बनी हुई थी। और जब तक हाथ में पैसे भी न हो। उसकी यह लालसा पूरी न हो सकती थी। जब देवकुमार अपने चालीस वर्ष के विवाहित जीवन में उसकी तृष्णा न मिटा सके तो अब उसका प्रयत्न करना वह पानी पीटने से कम व्यर्थ न समझते थे। दुःख उन्हें होता था संतकुमार के विचार और व्यवहार पर जो उनको घर को सम्पत्ति लुटा देने के लिए इस दशा में भी क्षमा न करना चाहता था। वह सम्पत्ति जो पचास साल पूर्व दस हजार में फेंक दी गई, आज होती तो उससे दस हजार साल की निकासी हो सकती थी। उनकी जिस आराजी में दिन को सियार लोटते थे वहां अब नगर का सब से गुलजार बाजार था जिसकी जमीन सौ रुपये वर्ग फुट पर बिक रही थी। संतकुमार का महत्वाकांक्षी मन रह-रह कर अपने पिता पर कुढ़ता रहता था। देवकुमार के पास पुत्र के स्वभाव में इतना अंतर कैसे हो गया यह रहस्य था देवकुमार के पास जरूरत से हमेशा कम रहा, पर उनके हाथ सदैव खुले रहे। उनका सौन्दर्य भावना से जागा हुआ मन कभीं कंचन की उपासना को जीवन लक्ष्य न बना सका। यह नहीं कि वह धन का मूल्य जानते न हों। मगर उनके मन में यह धारणा जम गई थी कि जिस राष्ट्र में तीन चौथाई प्राणी भूखे मरते हों वहां किसी एक को बहुत साधन कमाने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है, चाहे इसकी उसमें सामर्थ्य हो। मगर संतकुमार की लिप्सा ऐसे नैतिक आदर्शों पर हंसती थी। कभी कभी तो निस्संकोच होकर वह यहां तक कह जाता था कि आपको साहित्य से प्रेम था तो गृहस्थ बनने का क्या हक था। आपने अपना जीवन तो चौपट किया ही, हमारा जीवन भी मिट्टी में मिला दिया। और अब आप वानप्रस्थ लेकर बैठे हैं, मानो आपके जीवन के सारे ऋण चुक गए।

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