उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
जाड़ों के दिन थे। आठ बज चुके थे। सारा घर नाश्ते के लिए जमा हो गया था। पंकजा तख्त पर चाय और संतरे और सूखे मेवे तश्तरियों में रख दोनों भाइयों को उनके कमरों से बुलाने गई और एक क्षण में आकर साधुकुमार बैठ गया। ऊंचे कद का, सुगठित, रूपवान, गौरा, मीठे बचन, बोलने वाला, सौम्य युवक था। जिसे केवल खाने और सैर-सपाटे से मतलब था। जो कुछ जुट जाए भरपेट खा लेता था और यार-दोस्तों में निकल जाता था।
शैव्या ने पूछा–सन्तू कहां रह गया? चाय ठंडी हो जाएगी तो कहेगा यह तो पानी है! बुला ले तो साधु, इसे जैसे खाने-पीने की भी छुट्टी नहीं मिलती।
साधु सिर झुका कर रह गया! संतकुमार से बोलते उसकी जान निकलती थी।
शैव्या ने एक क्षण बाद फिर कहा–उसे भी क्यों नहीं बुला लेता?
साधु ने दबी जबान से कहा–नहीं, बिगड़ जाएंगे, सवेरे-सवेरे तो मेरा सारा दिन खराब हो जाएगा।
इतने में संतकुमार भी आ गया। शक्ल सूरत में छोटे भाई से मिलता-जुलता केवल शरीर का गठन उतना अच्छा न था। हां, मुख पर तेज और गर्व की झलक थी, और मुख पर एक शिकायत सी बैठी हुई थी, जैसे कोई चीज उसे पसंद न आती हो।
तख्त पर बैठ कर चाय मुंह से लगाई और नाक सिकोड़ कर बोले–तू क्यों नहीं आती पंकजा? और पुष्पा कहां है? मैं कितनी बार कह चुका हूं कि नाश्ता, खाना, पीना सब का एक साथ होना चाहिए।
शैव्या ने आंखें तरेर कर कहा–तुम लोग खा लो, यह सब पीछे खा लेंगी। पंगत थोड़ी है कि सब एक साथ बैठें।
संतकुमार ने एक घूंट चाय पीकर कहा–वही पुराना लचर। कितनी बार कह चुका हूँ कि उस पुराने लचर संकोच का जमाना नहीं रहा।
शैव्या ने मुँह बनाकर कहा–सब एक साथ बैठें तो लेकिन पकाए कौन और परसे कौन? एक महाराज रक्खो पकाने के लिए, दूसरा परोसने के लिए, जब वह ठाट निभेगा।
‘तो महात्मा जी उसका इन्तजाम क्यों नहीं करते या वानप्रस्थ लेना ही जानते हैं!’
‘उनको जो कुछ करना था कर चुके। अब तुम्हें जो कुछ करना हो तुम करो।’
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