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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578
आईएसबीएन :978-1-61301-111

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


‘जब पुरुषार्थ नहीं था तो हम लोगों को पढ़ाया-लिखाया क्यों? किसी देहात में ले जाकर छोड़ देते। हम अपनी खेती करते या मंजूरी करते और पड़े रहते। तो यह खटराग ही क्यों पाला?’

‘तुम उस वक्त न थे, सलाह किससे पूछते?’

संतकुमार ने कड़वा मुंह बनाए चाय पी, कुछ मेवे खाए, फिर साधुकुमार से बोले–तुम्हारी टीम कब बंबई जा रही है जी?

साधुकुमार ने गरदन झुकाए त्रस्त स्वर में कहा–परसों!

‘तुमने नया सूट बनवाया?’

‘मेरा पुराना सूट अभी काम दे सकता है।’

‘काम तो सूट के न रहने पर भी चल सकता है। हम लोग तो नंगे पांव, धोती चढ़ा कर खेला करते थे। मगर जब एक आल इंडिया टीम में खेलने जा रहे हो तो वैसा ठाट भी तो होना चाहिए। फटेहाल जाने से तो कहीं अच्छा न जाना। जब वहां लोग जानेंगे कि तुम महात्मा देवकुमार जी के सुपुत्र हो तो दिल में क्या कहेंगे?’

साधुकुमार ने कुछ जवाब न दिया। चुपचाप नाश्ता करके चला गया। वह अपने पिता की माली हालत जानता था और उन्हें संकट में न डालना चाहता था। अगर संतकुमार नए सूट की जरूरत समझते हैं तो बनवा क्यों नहीं देते? पिता के ऊपर भार डालने के लिए उसे क्यों मजबूर करते हैं?

साधु चला गया तो शैव्या ने आहत कंठ से कहा–जब उन्होंने साफ-साफ कह दिया कि अब मेरा घर से कोई वास्ता नहीं और सब कुछ तुम्हारे ऊपर छोड़ दिया तो तुम क्यों उन पर गृहस्थी का भार डालते हो? अपने सामर्थ्य और बुद्धि के अनुसार जैसे हो सका उन्होंने अपनी उम्र काट दी। जो कुछ वह नहीं कर सके या उनसे जो चूक हुई उन पर फिकरे कसना तुम्हारे मुंह से अच्छा नहीं लगता। अगर तुमने इस तरह उन्हें सताया तो मुझे डर है कि वह घर छोड़ कर कहीं अंतर्धान न हो जाएं।

वह धन न कमा सकें, पर इतना तो तुम जानते ही हो कि वह जहां भी जाएंगे लोग उन्हें सिर और आँखों पर लेंगे।

शैव्या ने अब तक सदैव पति की भर्त्सना ही की थी। इस वक्त उसे उनकी वकालत करते देखकर संतकुमार मुस्करा पड़ा।

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