उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
कमला० –वाह! वाह! यह तो तुमने खूब कही। कसम अल्लाह पाक की, खूब कही। जिस कल वह बिठाए, उस कल बैठ जाऊं? फिर झगड़ा ही न हो, क्यों? अच्छी बात है। कल दिन भर घर से निकलूंगा ही नहीं, देखूं तब क्या कहती है। देखा अब तक लौंडा केसर और केवड़ा लेकर नहीं लौटा। कान में भनक पड़ गई होगी, प्रेमा को मना कर दिया होगा। भाई अब तो नहीं रहा जाता, आज जो कोई मेरे मुंह लगा तो बुरा होगा। मैं अभी जाकर सब चीजें भेज देता हूं। मगर जब तक मैं न आऊं, आप न बनवाइएगा। यहां इस फन के उस्ताद हैं। मौरूसी बात है। दादा तोले-भर का नाश्ता करते हैं। उम्र में कभी एक दिन का भी नागा नहीं किया। मगर क्या मजाल कि नशा हो जाए।
यह कहते हुए कमलाप्रसाद झल्लाए हुए घर चले गए। वसन्त कुमार किसी काम से अन्दर गए, तो देखा पूर्णा उबटन पीस रही है। पण्डितजी के विवाह के बाद यह दूसरी होली थी। पहली होली में बेचारे खाली हाथ थे, पूर्णा की कुछ खातिर न कर सके थे। पर अबकी उन्होंने बड़ी-बड़ी तैयारियां की थीं। परिश्रम करके कोई १५० रु० ऊपर से कमाए थे। उससे पूर्णा के लिए अच्छी साड़ी लाए थे। दो-एक छोटी-मोटी चीजें भी बनवा दी थीं। पूर्णा आज वह साड़ी पहनकर उन्हें अप्सरा-सी दिख पड़ने लगी। समीप जाकर बोले–आज तो जी चाहता है, तुम्हें आंखों में बिठा लूं।
पूर्णा ने उबटन एक प्याली में उठाते हुए कहा–यह देखो, मैं तो पहले से ही बैठी हुई हूं।
वसन्त०–जरा स्नान करता आऊं। कमला बाबू अब दस बजे के पहले न लौटेंगे।
पूर्णा–पहले जरा यहां आकर बैठ जाओ, उबटन तो मल दूं, फिर नहाने जाना।
वसन्त०–नहीं; नहीं रहने दो, मैं उबटन न मलवाऊंगा। लाओ, मेरी धोती दो।
पूर्णा–वाह उबटन क्यों न मलवाओगे? आज की तो यही रीति है, आके बैठ जाओ।
वसन्त०–बड़ी गरमी है, बिल्कुल जी नहीं चाहता।
पूर्णा ने लपककर उनका हाथ पकड़ लिया और उबटन भरा हाथ उनकी देह में पोत दिया। तब बोली–सीधे से कहती थी, तो नहीं मानते थे। अब तो बैठोगे।
वसन्त ने झेंपते हुए कहा–मगर जरा जल्दी करना, धूप हो रही है।
पूर्णा–अब गंगाजी कहां जाओगे। यहीं नहा लेना।
वसन्त–नहीं आज गंगा के किनारे बड़ी बहार होगी।
पूर्णा–अच्छा, तो जल्दी लौट आना, यह नहीं कि इधर-उधर तैरने लगो। नहाते वक्त तुम बहुत दूर तक तैर जाया करते हो।
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