उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
मगर इसके साथ ही वह सरल न थी और युवकों के मुख से अनुराग-भरी बातें सुन कर वैसी ही ठंडी रहती थी। इस व्यापार में साधारण रूप-प्रशंसा के सिवा उसके लिए और कोई महत्त्व न था। और युवक किसी तरह प्रोत्साहन न पा कर निराश हो जाते थे मगर संतकुमार की रसिकता में उसे अंतर्ज्ञान से कुछ रहस्य कुछ कुशलता का आभास मिला। अन्य युवकों में उसने जो असंयम, जो उग्रता, जो विह्वलता देखी थी उसका यहां नाम भी न था। संतकुमार के प्रत्येक व्यवहार में संयम था, विधान था, सचेतता थी। इसीलिए वह उनसे सतर्क रहती थी और उनके मनोरहस्यों को पढ़ने की चेष्टा करती थी। संतकुमार का संयम और विचारशीलता ही उसे अपनी जटिलता के कारण अपनी ओर खींचती थी। संतकुमार ने उसके सामने अपने को अनमेल विवाह के एक शिकार के रूप में पेश किया था और उसे उनसे कुछ हमदर्दी हो गयी थी। पुष्पा के रंग-रूप की उन्होंने इतनी प्रशंसा की थी जितनी उनको अपने मतलब के लिए जरूरी मालूम हुई, मगर जिसका तिब्बी से कोई मुकाबला न था। उसने केवल पुष्पा के फूहड़पन, बेवकूफी, असहृदयता और निष्ठुरता की शिकायत की थी, और तिब्बी पर इतना प्रभाव जमा लिया था कि वह पुष्पा को देख पाती तो संतकुमार का पक्ष ले कर उससे लड़ती।
एक दिन उसने संतकुमार से कहा–तुम उसे छोड़ क्यों नहीं देते?
संतकुमार ने हसरत के साथ कहा–छोड़ कैसे दूं मिस त्रिवेणी, समाज में रह कर समाज के कानून तो मानने ही पड़ेंगे। फिर पुष्पा का इसमें क्या कसूर है। उसने तो अपने आपको नहीं बनाया। ईश्वर ने या संस्कारों ने या परिस्थितियों ने जैसा बनाया वैसी बन गयी।
मुझे ऐसे आदमियों से जरा भी सहानुभूति नहीं जो ढोल को इसलिए पीटें की वह गले पड़ गई है। मैं चाहती हूं कि वह ढोल गले से निकाल कर किसी खंदक में फेंक दें। मेरा बस चले तो मैं खुद उसे निकाल कर फेंक दूं।’
संतकुमार ने अपना जादू चलते हुए देख कर मन में प्रसन्न होकर कहा–लेकिन उसकी क्या हालत होगी, यह तो सोचो।
तिब्बी अधीर होकर बोली–तुम्हें यह सोचने की जरूरत ही क्या है? अपने घर चली जायेगी, या कोई काम करने लगेगी या अपने स्वभाव के किसी आदमी से विवाह कर लेगी।
संतकुमार ने कहकहा मारा–तिब्बी यथार्थ और कल्पना में भेद भी नहीं समझती, कितनी भोली है।
गंभीर उदारता के भाव से बोले–यह बड़ा टेढ़ा सवाल है कुमारी जी! समाज की नीति कहती है कि चाहे पुष्पा को देखकर रोज मेरा खून ही क्यों न जलता रहे और एक दिन मैं इसी शोक में अपना गला क्यों न काट लूं, लेकिन उससे कुछ नहीं हो सकता, छोड़ना तो असंभव है। केवल एक ही ऐसा आक्षेप है जिस पर मैं उसे छोड़ सकता हूं, यानी उसकी बेवफाई। लेकिन पुष्पा में और चाहे जितने दोष हों यह दोष नहीं है।
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