उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
262 पाठक हैं |
‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
संध्या हो गयी थी। तिब्बी ने नौकर को बुला कर बाग में गोल चबूतरे पर कुर्सियां रखने को कहा और बाहर निकल आयी। नौकर ने कुर्सियां निकाल कर रख दीं, और मानो यह काम समाप्त करके जाने को हुआ।
तिब्बी ने डांट कर कहा–कुर्सियां साफ क्यों नहीं कीं? देखा नहीं उन पर कितनी गर्द पड़ी हुई है? मैं तुझसे कितनी बार कह चुकी, तुझे याद ही नहीं रहती। बिना जुर्माना किये तुझे याद न आयेगी।
नौकर ने कुर्सियां पोंछ-पांछ कर साफ कर दीं और फिर जाने को हुआ।
तिब्बी ने फिर डांटा–तू बार-बार भागता क्यों है? मेजें रख दीं? टी टेबल क्यों नहीं लाया? चाय क्या तेरे सिर पर पियेंगे?
उसने बूढ़े नौकर के दोनों कान गर्मा दिये और धक्का देकर बोली–बिलकुल गावदी है, निरा पोंगा, जैसे दिमाग में गोबर भरा हुआ है।
वह नौकर बहुत दिनों का था। स्वामिनी उसे बहुत मानती थी। उनका देहांत होने के बाद गोकि उसे कोई विशेष प्रलोभन न था, क्योंकि इससे एक-दो रुपया ज्यादा वेतन पर उसे नौकरी मिल सकती थी पर स्वामिनी के प्रति उसे जो श्रद्धा थी वह उसे इस घर में बांधे हुई थी और यहां अनादर अपमान सब कुछ सह कर भी वह चिपटा हुआ था। सब-जज साहब उसे डांटते रहते थे पर उनके डांटने का उसे दुख न होता था। वह उम्र में उसके जोड़ के थे। लेकिन त्रिवेणी को तो उसके शरीर को तो उसने गोद में खेलाया था। अब वही तिब्बी उसे डांटती थी, और मारती भी थी। इससे उसके शरीर को जितनी चोट लगती थी उससे कहीं ज्यादा उसके आत्माभिमान को लगती थी। उसके केवल दो घरों में नौकरी की थी। दोनों ही घरों में लड़कियां भी थीं बहुएं भी थीं। सब उनका आदर करती थीं। बहुत तो उससे लजाती थीं। अगर उससे कोई बात बिगड़ भी जाती तो मन में रख लेती थीं। उसकी स्वामिनी तो आदर्श महिला थी। उसे कभी कुछ न कहा। बाबूजी कभी कुछ कहते थे तो उसका पक्ष लेकर उनसे लड़ती थी। और यह लड़की बेटे-छोटे का ज़रा लिहाज नहीं करती। लोग कहते हैं पढ़ने से अक्ल आती है। यही है वह अक्ल! उसके मन में विद्रोह का भाव उठा–क्यों यह अपमान सहे? जो लड़की उसकी अपनी लड़की से भी छोटी हो; उसके हाथों क्यों अपनी मूछें नुचवाए? वह सम्मान और प्रतिष्ठा को अपना अधिकार समझता है, और उसकी जगह अपमान पाकर मर्माहत हो जाता है।
घूरे ने टी-टेबल ला कर रख दी, पर आँखों में विद्रोह भरे हुए था।
तिब्बी ने कहा–जा कर बैरा से कह दो, दो प्याले दे जाए।
घूरे चला गया और बैरा को वह हुक्म सुना कर अपनी एकांत कुटीर में जा खूब रोया। आज स्वामिनी होती तो उसका अनादर क्यों होता!
|