उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
बैरा ने चाय मेज पर रख दी। तिब्बी ने प्याली संतकुमार को दी और विनोद भाव से बोली–तो अब मालूम हुआ कि औरतें ही पतिव्रता नहीं होतीं, मर्द भी पत्नीव्रत वाले होते हैं।
संतकुमार ने एक घूंट पी कर कहा–कम से कम इसका स्वांग तो करते ही हैं।
‘मैं इसे नैतिक दुर्बलता कहती हूं। जिसे प्यारा कहो, दिल से प्यारा कहो, नहीं प्रकट हो जाय। मैं विवाह को प्रेमबंधन के रूप में देख सकती हूं, धर्मबंधन या रिवाजबंधन तो मेरे लिए असह्य हो जाए।’
‘उस पर भी तो पुरुषों पर आक्षेप किए जाते हैं।’
तिब्बी चौंकी। यह जातिगत प्रश्न हुआ जा रहा है।
अब उसे अपनी जाति का पक्ष लेना पड़ेगा–तो क्या आप मुझसे यह मनवाना चाहते हैं कि सभी पुरुष देवता होते हैं? आप भी जो वफादारी कर रहे हैं वह दिल से नहीं, केवल लोकनिंदा के भय से। मैं इसे वफादारी नहीं कहती। बिच्छू के डंक तोड़ कर आप उसे बिलकुल निरीह बना सकते हैं, लेकिन इससे बिच्छुओं का जहरीलापन तो नहीं जाता।
संतकुमार ने अपना हार मान हुए कहा–अगर मैं भी यहीं कहूं कि अधिकतर नारियों का पतिव्रता होना भी लोकनिंदा का भय है तो आप क्या कहेंगी?
तिब्बी ने प्याला मेज पर रखते हुए कहा–मैं इसे कभी न स्वीकार करूंगी।
‘क्यों?’
‘इसलिए कि मर्दों ने स्त्रियों के लिए और कोई आश्रय छोड़ा ही नहीं। पतिव्रत उनके अन्दर इतना कूट-कूट कर भरा गया है कि अब अपना व्यक्तित्व रहा ही नहीं। वह केवल पुरुष के आधार पर जी सकती हैं। उसका स्वतंत्र कोई अस्तित्व नहीं। बिना ब्याह पुरुष चैन से खाता है, विहार करता है और मूंछों पर ताव देता है। बिन ब्याही स्त्री रोती है, कल्पती है और अपने को संसार का सबसे अभागा प्राणी समझती है। यह सारा मर्दों का अपराध है। आप भी पुष्पा को नहीं छोड़ रहे हैं, इसीलिए न कि आप पुरुष हैं जो कैदी को आजाद नहीं करना चाहता।’
संतकुमार ने कातर स्वर में कहा–आप मेरे साथ बेइंसाफी करती हैं। मैं पुष्पा को इसलिए नहीं छोड़ रहा हूँ कि मैं उसका जीवन नष्ट करना चाहता अगर मैं आज उसे छोड़ दूं तो शायद औरों के साथ आप भी मेरा तिरस्कार करेंगी।
तिब्बी मुस्कुराई–मेरी तरफ से आप निश्चिंत रहिए। मगर एक ही क्षण के बाद उसने गंभीर होकर कहा–लेकिन मैं आपकी कठिनाइयों का अनुमान कर सकती हूं।
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