उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
262 पाठक हैं |
‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
‘मुझे आपके मुंह से ये शब्द सुन कर कितना संतोष हुआ। मैं वास्तव में आपकी दया का पात्र हूं और शायद कभी मुझे इसकी जरूरत पड़े।’
‘आपके ऊपर मुझे सचमुच दया आती है। क्यों न एक दिन उनसे किसी तरह मेरी मुलाकात करा दीजिए। शायद मैं उन्हें रास्ते पर ला सकूं।’
संतकुमार ने ऐसा लंबा मुंह बनाया जैसे इस प्रस्ताव से उसके मर्म पर चोट लगी है।
‘उनका रास्ते पर आना असंभव है मिस त्रिवेणी। वह उलटे आप ही के ऊपर आक्षेप करेगी और आपके विषय में न जाने कैसी दुष्कल्पनाएं कर बैठेंगी। और मेरा तो घर में रहना मुश्किल हो जाएगा।’
तिब्बी का साहसिक मन गर्म हो उठा–तब तो मैं उससे जरूर मिलूंगी।
‘तो शायद आप यहां भी मेरे लिए दरवाजा बन्द कर देंगी।’
‘ऐसा क्यों?’
‘बहुत मुमकिन है वह आपकी सहानुभूति पा जाए और आप उसकी हिमायत करने लगें।’
‘तो क्या आप चाहते हैं मैं आपको एकतर्फा डिग्री दे दूं?’
‘मैं केवल आपकी दया और हमदर्दी चाहता हूं। आपसे अपनी मनोव्यथा कह कर दिल का बोझ हल्का करना चाहता हूं। उसे मालूम हो जाए कि मैं आपके यहां आता-जाता हूं तो एक नया किस्सा खड़ा कर दे।’
तिब्बी ने सीधे व्यंग किया–तो आप उससे इतना डरते क्यों हैं? डरना तो मुझे चाहिए।
संतकुमार ने और गहरे में जाकर कहा–मैं आपके लिए डरता हूं, अपने लिए नहीं।
तिब्बी निर्भयता से बोली–जी नहीं, आप मेरे लिए न डरिए।
‘मेरे जीते जी, मेरे पीछे, आप पर कोई शुबहा हो यह मैं नहीं देख सकता।’
‘आपको मालूम है मुझे भावुकता पसंद नहीं?’
|