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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578
आईएसबीएन :978-1-61301-111

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


यह कहकर कमलाप्रसाद ने पूर्णा के कपोल को उंगली से स्पर्श किया। पूर्णा का मुख आरक्त हो गया, उसने झिझककर मुंह हटा लिया; पर कुर्सी से उठी नहीं। यहां से अब भागना नहीं चाहती थी, इन बातों को सुनकर उसके अन्तःस्थल में ऐसी गुदगुदी हो रही थी, जैसी विवाह मण्डप में जाते समय युवक के हृदय में होती है।

कमला को सहसा साड़ियों की याद आ गयी। दोनों साड़ियां अभी तक उसने सन्दूक में रख छोड़ी थीं। उसने एक साड़ी निकालकर पूर्णा के सामने रख दी और कहा–देखो, यह वही साड़ी है पूर्णा, उस दिन तुमने इसे अस्वीकार कर दिया था, आज इसे मेरी खातिर स्वीकार कर लो। एक क्षण के लिए इसे पहन लो। तुम्हारी यह सफेद साड़ी देखकर मेरे हृदय में चोट-सी लगती है। मैं ईमान से कहता हूं; यह तुम्हारे वास्ते लाया था। सुमित्रा के मन में कोई सन्देह न हो, इसलिए एक और लानी पड़ी। नहीं, उठाकर रखो मत। केवल एक ही क्षण के लिए पहन लो। जरा मैं देखना चाहता हूं कि इस रंग की साड़ी तुम्हें कितनी खिलती है। न मानोगी तो जबरदस्ती पहना दूंगा।

पूर्णा ने साड़ी को हाथ में लेकर उसी की ओर ताकते हुए कहा–कभी पहन लूंगी, इतनी जल्दी क्या है। फिर यहां मैं कैसे पहनूंगी?

कमला०–मैं हट जाता हूं।

कमरे के एक तरफ छोटी-सी कोठरी थी, उसी में कमलाप्रसाद कभी-कभी बैठकर पढ़ता था। उसके द्वार पर छींट का एक परदा पड़ा हुआ था। कमलाप्रसाद परदा उठाकर उस कोठरी में चला गया। एकान्त हो जाने पर भी पूर्णा साड़ी न पहन सकी! इच्छा पहनने की थी, पर संकोच था कि कमलाप्रसाद अपने दिल में न जाने क्या आशय समझ बैठें।

कमलाप्रसाद ने परदे की आड़ से कहा–पहन चुकीं? अब बाहर निकलूं?

पूर्णा ने मुस्कराकर कहा–हां, पहन चुकी; निकलो।

कमला ने परदा उठाकर झांका। पूर्णा हंस पड़ी। कमला ने फिर पर्दा खींच लिया और उसकी आड़ से बोला–अबकी अगर तुमने न पहना पूर्णा, मैं आकर जबरदस्ती पहना दूंगा।

पूर्णा ने साड़ी पहनी तो नहीं, हां उसका आंचल खोलकर सिर पर रख लिया सामने ही आईना था, उस पर उसने निगाह डाली! अपनी रूप-छटा पर वह आप ही मोहित हो गयी। एक क्षण के लिए उसके मन में ग्लानि का भाव जागृत हो उठा। उसके मर्मस्थल में कहीं से आवाज आयी–पूर्णा, होश में आ; किधर जा रही है? वह मार्ग तेरे लिए बन्द है। तू उस पर कदम नहीं रख सकती। वह साड़ी को अलग कर देना चाहती थी कि सहसा कमला प्रसाद परदे से निकलकर आया और बोला–आखिर तुमने नहीं पहनी न? मेरा इतनी जरा-सी बात भी तुम न मान सकी।

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