उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
पूर्णा–पहने हुए तो हूं। अब कैसे पहनूं? कौन अच्छी लगती है। मेरी देह पर आकर साड़ी की मिट्टी भी खराब हो गयी।
कमला ने अनुरक्त नेत्रों से देखकर कहा–जरा आइने में तो देख लो?
पूर्णा ने दबी हुई निगाह आईने पर डालकर कहा–देख लिया! जरा भी अच्छी नहीं लगती।
कमला०–दीपक की ज्योति मात हो गयी! वाह रे ईश्वर! तुम ऐसी आलोकमय छवि की रचना कर सकते हो। तुम्हें धन्य है!
पूर्णा–मैं उतारकर फेंक दूंगी।
कमला०–ईश्वर, अब मेरा बेड़ा कैसे पार लगेगा।
पूर्णा–मुझे डुबाकर। यह कहते-कहते पूर्णा की मुख की ज्योति मलिन पड़ गयी। पूर्णा ने साड़ी उतारकर अलगनी पर रख दी।
कमला ने पूछा–यहां क्यों रखती हो?
पूर्णा बोली–और कहां ले जाऊं। आपकी इतनी खातिर कर दी। ईश्वर जाने क्या दण्ड देंगे।
कमला०–ईश्वर दण्ड नहीं देंगे पूर्णा, यह उन्हीं की आज्ञा है। तुम उनकी चिन्ता न करो। खड़ी क्यों हो। अभी तो बहुत रात है, क्या अभी से भाग जाने का इरादा है। पूर्णा ने द्वार के पास जाकर कहा–अब जाने दो बाबूजी, क्यों मेरा जीवन भ्रष्ट करना चाहते हो। तुम मर्द हो, तुम्हारे लिए सब कुछ माफ है, मैं औरत हूं, मैं कहा जाऊंगी? दूर तक सोचो। अगर घर में जरा सुनगुन हो गयी, तो जानते हो मेरी क्या दुर्गति होगी?
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