उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
डूब मरने के सिवा मेरे लिए कोई और उपाय रह जाएगा? इसको सोचिए, आप मेरे पीछे निर्वासित होना पसन्द करेंगे? और फिर बदनाम होकर कलंकित होकर–जियें, तो क्या जिये। नहीं बाबूजी, मुझ पर दया कीजिए। मैं तो आज ही मर ही जाऊँ, तो किसी को कोई हानि न होगी, वरन पृथ्वी का कुछ बोझ ही हल्का होगा; लेकिन आपका जीवन बहुमूल्य है। उसे आप मेरे लिए क्यों बाधा में डालिएगा? ज्योंही कोई अवसर आएगा, आप हाथ झाड़कर अलग हो जाइएगा, मेरी क्या गति होगी–इसकी आपको उस वक्त जरा भी चिन्ता न होगी।
कमला ने जोर देकर कहा–यह कभी नहीं हो सकता पूर्णा, जरूरत पड़े तो तुम्हारे लिए प्राण तक दे दूं। जब चाहे परीक्षा कर देखो।
पूर्णा–बाबूजी, यह सब खाली बात-ही-बात है। इसी मुहल्ले में दो-एक ऐसी घटनाएं देख चुकी हूं। आपको न जाने क्यों मेरे इस रूप पर मोह हो गया है। अपने दुर्भाग्य के सिवा इसे और क्या कहूं। जब तक आपकी इच्छा होगी, अपना मन बहलाइयेगा, फिर बात भी न पूछिएगा, यह सब समझ रही हूं। ईश्वर को आप बार-बार बीच में घसीट लाते हैं। इसका मतलब भी समझ रही हूं। ईश्वर किसी को कुमार्ग की ओर नहीं ले जाते। इसे चाहे प्रेम कहिए चाहे वैराग्य कहिए, लेकिन है कुमार्ग ही। मैं इस धोखे में नहीं आने की आज जो कुछ हो गया, हो गया, अब भूलकर भी मेरी ओर आंख न उठाइएगा, नहीं तो मैं यहां न रहूंगी। यदि कुछ न हो सकेगा, तो डूब मरूंगी। ईधन न पाकर आग आप-ही-आप बुझ जाती है। उसमें ईधन न डालिए।
कमला ने मुंह लटकाकर कहा–पूर्णा, मैं तो मर जाऊंगा। सच कहता हूं मैं जहर खाकर सो रहूंगा, और हत्या तुम्हारे सिर आएगी।
यह अन्तिम वाक्य पूर्णा ने सुना था या नहीं, हम नहीं कह सकते। उसने द्वार खोला और आंगन की ओर चली। कमला द्वार पर खड़ा ताकता रहा। पूर्णा को रोकने का साहस उसे न हुआ। चिड़िया एक बार दाने पर आकर फिर न जाने क्या आहट पाकर उड़ गयी थी। इतनी ही देर में पूर्णा के मनोभावों में कितने रूपान्तर हुए, वह खड़ा यही सोचता रहा। वह रोष, फिर वह हास-विलास, और अन्त में यह विराग! यह रहस्य उसकी समझ में न आता था।
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