उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
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क्या वह चिड़िया फिर दाने पर गिरेगी? यही प्रश्न कमला के मस्तिष्क में बार-बार उठने लगा।
आदर्श हिन्दू-बालिका की भांति प्रेमा पति के घर आकर पति की हो गयी थी। अब अमृतराय उसके लिए केवल एक स्वप्न की भांति थे, जो उसने कभी देखा था। वह गृह-कार्य में बड़ी कुशल थी। सारा दिन घर का कोई काम करती रहती। दाननाथ को सजावट का सामान खरीदने का शौक था, वह अपने घर को साफ-सुथरा सजा हुआ देखना भी चाहते थे; लेकिन इसके लिए जिस संयम और श्रम की जरूरत है वह उनमें न था। कोई चीज ठिकाने पर रखना उन्हें आता ही न था। ऐनक स्नान के कमरे के ताक पर रख दिया, तो उसकी याद उस वक्त आती जब कालेज में जरूरत पड़ती। खाने-पीने, सोने-जागने का कोई नियम न था। कभी कोई अच्छी पुस्तक मिल गई, तो सारी रात जागते रहे। कभी सरेशाम से सो रहे, तो खाने-पीने की सुध न रही। आय-व्यय की व्यवस्था न थी। जब तक हाथ में रुपये रहते, बेदरेग खर्च किये जाते, बिना जरूरत की चीजें आया करतीं। रुपये खर्च हो जाने पर, लकड़ी और तेल में किफायत करनी पड़ती थी। तब वह अपनी वृद्धा माता पर झुंझलाते; पर माता का कोई दोष न था। उनका बस चलता तो अब तक दाननाथ चार पैसे के आदमी हो गए होते। वह पैसे का काम धेले में निकालना चाहती थी। कोई महरी कोई कहार, उनके यहां टिकने न पाता था। उन्हें अपने हाथों काम करने में शायद आनन्द आता था। वह गरीब माता-पिता की बेटी थीं, दाननाथ के पिता भी मामूली आदमी थे; और फिर जिये भी बहुत कम। माता ने अगर इतनी किफायत से न काम लिया होता तो दाननाथ किसी दफ्तर के चपरासी होते। ऐसी महिला के लिए कृपणता स्वाभाविक ही थी। वह दाननाथ को अब भी वही बालक समझती थीं जो कभी उनकी गोद में खेला करता था। उनके जीवन का वह सबसे आनन्दमय समय होता था, जब दाननाथ के सामने थाल रखकर वह खिलाने बैठती थीं। किसी महाराज या रसोइये, कहार या महरी को वह इस आनंद में बाधा न डालने देना चाहती थीं, फिर वह जियेंगी कैसे? जब दाननाथ को अपने सामने बैठाकर खिला न लें, उन्हें संतोष न होता था। दाननाथ भी माता पर जान देते थे, चाहते थे कि वह अच्छे से अच्छा खायें, पहनें और आराम से रहें; मगर उनके पास बैठकर बालकों की तोतली भाषा में बातें करने का उन्हें न अवकाश था न रुचि। दोस्तों के साथ कहीं नहीं, पर उसकी हार्दिक इच्छा थी कि दाननाथ अपना पूरा वेतन लाकर उसके हाथ में रख दें; फिर वह अपने ढंग से उसे खर्च करतीं। ३०० रुपये थोड़े नहीं होते, न जाने कैसे खर्च कर डालता है। इतने रुपयों की गड्डी को हाथों से स्पर्श करने का आनन्द उसे कभी न मिलता था। दाननाथ में या तो इतनी सूझ न थी, या तो लापरवाह थे। प्रेमा ने दो ही चार महीनों में घर को सुव्यवस्थित कर दिया। हरेक काम का समय और नियम था, हरेक चीज का विशेष स्थान था, आमदनी और खर्च का हिसाब था। दाननाथ को अब १० बजे सोना और ५ बजे उठना पड़ता था, नौकर चाकर खुश थे; और सबसे ज्यादा खुश थी प्रेमा की सास। दाननाथ को जेब खर्च के २५ रुपये देकर प्रेमा बाकी रुपये सास के हाथ में रख देती थी; और जिस चीज की जरूरत होती, उन्हीं से कहती। इस भांति वृद्धा को गृह-स्वामिनी का अनुभव होता था। यद्यपि महीने के शुरू से वह कहने लगती थीं अब रुपये नहीं रहे, खर्च हो गये; क्या मैं रुपया हो जाऊं; लेकिन प्रेमा के पास तो पाई-पाई का हिसाब रहता था, चिरौरी-विनती करके, अपना काम निकाल लिया करती थी।
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