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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578
आईएसबीएन :978-1-61301-111

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


यह सब कुछ था; पर दाननाथ को अब भी यही शंका बनी हुई थी कि प्रेमा को अमृतराय से प्रेम है। प्रेमा चाहे दाननाथ के लिए प्राण तक निकालकर रख दे; पर इस शंका को उनके हृदय से न निकाल सकती थी। यदि प्रेमा की प्रेम-कथा उन्हें पहले से मालूम न होती, तो शायद वह अपने को संसार में सबसे सुखी आदमी समझते। उससे वह क्या चाहते थे–उसमें उन्हें कौन-सी कमी नजर आती थी, यह वह खुद न जानते थे; पर एक अस्पष्ट-सी कल्पना में पड़े रहते थे कि अमृतराय की ओर से इसका मन फेर दूं। वेतन के उपरान्त समाचार पत्रों में लेख लिखकर परीक्षा के पत्र देखकर उन्हें खासी रकम हाथ आ जाती थी। इससे वह प्रेमा के लिए भांति-भांति के उपहार लाया करते। अगर उनके बस की बात होती, तो वह आकाश के तारे तोड़ लाते, और उसके गले का हार बनाते। अपने साथी अध्यापकों से उसकी प्रशंसा करके उनकी जबान न थकती थी। उन्होंने पहले कभी कविता नहीं की थी। कवियों को तुकबन्द कहा करते थे; लेकिन अब उनका गद्य भी कवित्वमय होता था। प्रेमा कवित्व की सजीव मूर्ति थी। उसके एक-एक ढंग, एक-एक भाव को देखकर कल्पना आप-ही-आप सजग हो जाती थी। उसके सम्मुख बैठकर उन्हें दुनिया की याद न रहती थी–सारा वायुमण्डल स्वर्गमय हो जाता था। ऐसी कोमलता, ऐसा प्रकाश, ऐसा आकर्षण, ऐसा माधुर्य क्या पार्थिव हो सकता है! जब वह लम्बी-लम्बी पलकों में ढकी हुई, लज्जाशील, रसीली आंखों से उनकी ओर देखती तो दाननाथ का हृदय लहरा उठता था। सच्चा प्रेम, संयोग में भी वियोग की मधुर वेदना का अनुभव करता है। दाननाथ को प्रेमा अपने से दूर जान पड़ती थी।

उस पर भी दाननाथ के मन में वह शंका बनी हुई थी। वह एक बार उसके अन्तःस्थल में बैठकर देखना चाहते थे–एक बार उसके मनोभावों की थाह लेना चाहते थे; लेकिन यह भी चाहते थे कि वह यह न समझे कि उसकी परीक्षा हो रही है। कहीं उसने भांप लिया तो अनर्थ हो जाएगा, उसका कोमल हृदय उस परीक्षा का भार सह भी सकेगा या नहीं!

न-जाने क्यों दाननाथ को अब अमृतराय से द्वेष हो गया था। कदाचित समझते थे कि उनके आनंद-संगीत में यही एक कर्कस स्वर है। यह न होता तो उनके जीवन पर देवताओं को भी ईर्ष्या होती। वह अब भी अमृतराय के घर जाते थे, घण्टों बैठे रहते थे; लेकिन दोनों मित्रों में अब वह अभिन्नता न थी–अब वे एक जान दो कालिव न थे। अमृतराय भी यह समझते थे। उन्हें यह जानने की बड़ी उत्सुकता होती थी कि प्रेमा सुखी है या नहीं। वह एक बार उससे मिल कर उसका दिल अपनी ओर से साफ कर देना चाहते थे, लेकिन ऐसा मौका नाजुक था कि इस विषय पर जबान खोलते हुए उन्हें संकोच ही नहीं, वरन भय होता था। दाननाथ इतना क्षुद्र हृदय है, यह उन्होंने न समझा था।

आखिर उन्होंने एक दिन कह ही डाला–आजकल आईने में अपनी सूरत देखे हो?

दाननाथ ने प्रश्न का आशय समझकर कहा–खता क्यों नहीं? कम-से-कम चार बार तो नियम से देखता हूं।

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