उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
दाननाथ–उन्हें तो आज दोपहर तक खबर न थी। मुझे खुद बुरा मालूम होता है कि समाज सुधार के नाम पर हिन्दू समाज में वे सब बुराइयां समेट ली जाएं जिनमें पश्चिम वाले अब खुद तंग आ गये हैं। अछूतोद्धार का चारों ओर शोर मचा हुआ है। कुंओं पर आने से मत रोको, मंदिर में जाने से मत रोको, मदरसों में जाने से मत रोका। अछूतोद्धार से पहले अछूतों की सफाई और आचार-विचार की कितनी जरूरत है, इसकी ओर किसी की निगाह नहीं। बस, इन्हें जल्दी से मिला लो, नहीं तो ये ईसाई या मुसलमान हो जायेंगे। ऐसी-ऐसी भ्रष्टाचारी जातियों को मिलाकर मुसलमान या ईसाई ही क्या भूना लेंगे? लाखों चमार और रोमड़े ईसाई हो गये; मद्रास प्रांत में गांव के गांव ईसाई हो गये। मगर उनके आचरण और व्यवहार अब भी वही हैं, प्रेत-पूजा की उनमें अब भी प्रथा है। सिवाय इसके कि वे अब शराब अधिक पीने लगे हैं, चाय के गुलाम हो गये हैं तथा अंगरेजों के उतारे कोट-पतलून पहनते हैं, उनमें और कोई फर्क नहीं है। ईसाई जाति उनसे और बदनाम ही हुई है, नेकनाम नहीं हुई। इसी तरह इन्हें मिलाकर मुसलमान भी दिग्विजय न कर लेंगे। भंगियों के साथ नमाज पढ़ लेने से, या उनके हाथ का पानी लेने से कोई राष्ट्र बलवान हो सकता तो, आज मुसलमानों का संसार पर राज्य होता; मगर आज जिधर देखिए, उधर हिन्दुओं ही की भांति वे भी किस्मत को रो रहे हैं। ले-दे के स्वाधीन मुस्लिम राज्यों में टर्की रह गया है, वह भी इसलिए कि यूरोपियन राज्यों में टर्की के बंटवारे के विषय में अभी मतभेद है। मैं कम-से-कम उतना उदार अवश्य हूं जितने अमृतराय हैं; लेकिन जो चमार मरा हुआ जानवर खाता है, रात-दिन चमड़े के धोने-बनाने में लगा रहता है, उसका बर्तन अपने कुएं कभी न जाने दूंगा। अमृतराय की मैंने खूब चुटकी ली है।
प्रेमा ने दबी जबान से कहा–अब तक वह तुम्हें अपना सहायक समझते थे। यह नोटिस पढ़कर चकित हो गये होंगे।
दाननाथ ने नाक सिकोड़कर कहा–मैं उनका सहायक कभी न था। सुधार-उधार के झगड़े में कभी नहीं पड़ा। मैं पहले कहता था, और अब भी कहता हूं कि संसार को अपने ढंग पर चलने दो। वह अपनी जरूरतों को स्वयं जानता है। समय आयेगा तो सब कुछ आप ही हो रहेगा। अच्छा अब चलता हूं। किसी देवता की मनौती कर दो–यह सफल हुए, तो सवा सेर लड्डू चढ़ाऊंगी। प्रेमा ने मुसकराकर कहा–कर दूंगी!
दान०–नहीं, अभी मेरे सामने कर दो। तुम्हें गाते-बजाते मंदिर तक जाना पड़ेगा।
व्याख्यान हुआ; और ऐसे मार्क का हुआ कि शहर में धूम मच गयी। पहले दस मिनट तो दाननाथ हिचकते रहे; लेकिन धीरे-धीरे उनकी वाणी में शक्ति और प्रभाव का संचार होता गया। वह अपने ही शब्द संगीत में मस्त हो गये। पूरे दो घंटे तक सभा चित्र-लिखित सी बैठी रही और जब व्याख्यान समाप्त हुआ, तो लोगों को ऐसा अनुभव हो रहा था, मानो उनकी आंखें खुल गयीं। यह महाशय तो छिपे रुस्तम निकले। कितना पांडित्य है! कितनी विद्वता है! सारे धर्म ग्रन्थों को मथकर रख दिया है! जब दाननाथ मंच से उतरे तो हजारों आदमियों ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया और उन पर अपने श्रद्धा-पुष्पों की वर्षा करने लगे। दाननाथ को ऐसा स्वर्गीय आनंद अपने जीवन में कभी न मिला था।
रात के आठ बज गये थे। दाननाथ प्रेमा के साथ बैठे दूर की उड़ा रहे थे–सच कहता हूं प्रिये; कोई दस हजार आदमी थे; मगर क्या मजाल की किसी के खांसने की भी आवाज आती हो। सब के सब बुत बने बैठे थे। तुम कहोगी, यह जीट उड़ा रहा है; पर मैंने लोगों को कभी इतना तल्लीन नहीं देखा।
सहसा एक मोटर द्वार पर आयी; और उसमें से कौन उतरा, अमृतराय। उनकी परिचित आवाज दाननाथ के कानों में आयी–अजी स्वामीजी जरा बाहर तो आइये, या अन्दर ही डटे रहिएगा। आइए जरा आपकी पीठ ठोकूं, सिर सहलाऊं इनाम दूं।
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