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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578
आईएसबीएन :978-1-61301-111

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


दाननाथ ने चौंककर कहा–अमृतराय हैं! यह आज कहां से फट पड़े? जरा पान-वान भिजवा देना।

विवाह के बाद आज अमृतराय पहली बार दाननाथ के घर आये थे। प्रेमा तो ऐसी घबरा गयी, मानो द्वार पर बारात आ गयी हो। मुंह से आवाज ही न निकलती थी। भय होता था, कहीं अमृतराय उसकी आवाज न सुन लें। इशारे से महरी को बुलाया और पानदान मंगवाकर पान बनाने लगी।

उधर दाननाथ बाहर निकले तो अमृतराय के सामने आंखें न उठती थीं। मुस्करा तो रहे थे, पर केवल अपनी झेंप मिटाने के लिए।

अमृतराय ने उन्हें गले लगाते हुए कहा–आज तो यार तुमने कमाल कर दिखाया। मैंने अपनी जिंदगी में कभी ऐसी स्पीच न सुनी थी।

दाननाथ पछताये कि यह बात प्रेमा ने न सुनी। शर्माते हुए बोले–अजी दिल्लगी थी। मैंने कहा, यह तमाशा भी कर देखूं।

अमृतराय–दिल्लगी नहीं थी भाई, जादू था। तुमने तो आग लगा दी। अब भला हम जैसों को कौन सुनेगा। मगर सच बताना यार, तुम्हें यह विभूति कैसे हाथ आ गयी? मैं तो दांत पीस रहा था। मौका होता वहीं तुम्हारी मरम्मत करता।

दान०–तुम कहां बैठे थे? मैंने नहीं देखा।

अमृत०–सबसे पीछे की तरफ मैं मुंह छिपाये खड़ा था। आओ, जरा तुम्हारी पीठ ठोंक दूं?

दान०–जी नहीं, माफ कीजिए, आप तो पीठ सुहलायेंगे, और मुझे महीने भर मालिशें करानी पड़ेंगी, सच कहना, मैं आगे चलकर बोल सकूंगा?

अमृत०–अब तुम मेरे हाथों से पिटोगे। तुमने पहली ही स्पीच में अपनी धाक जमा दी, आगे चलकर तो तुम्हारा जवाब ही न मिलेगा। मुझे दुःख है तो यही कि हम और तुम अब दो प्रतिकूल मार्ग पर चलते नजर आवेंगे। मगर यार, यहां दूसरा कोई नहीं है, क्या तुम दिल से समझते हो कि सुधारों से हिन्दू-समाज को हानि पहुंचेगी?

दाननाथ ने संभलकर कहा०–हां भाई, इधर मैंने धर्म-साहित्य का जो अध्ययन किया है, उससे मैं इसी नतीजे पर पहुंचा। मगर बहुत संभव है कि मुझे भ्रम हुआ हो।

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