उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
अमृत०–तो फिर हमारी तुम्हारी खूब छनेगी: मगर एक बात का ध्यान रखना, हमारे सामाजिक सिद्धान्तों में चाहे कितना ही भेद क्यों न हो, मंच पर चाहे एक दूसरे को नोच ही क्यों न खायें; मगर मैत्री अक्षुण्ण रहनी चाहिए। हमारे निज के सम्बंध पर उनकी आंच तक न आने पाये। मुझे अपने ऊपर तो विश्वास है; लेकिन तुम्हारे ऊपर मुझे विश्वास नहीं है। क्षमा करना, मुझे भय है कि तुम...
दाननाथ ने बात काटकर कहा–अपनी ओर से भी मैं तुम्हें यही विश्वास दिलाता हूं। कोई वजह नहीं है कि हमारे धार्मिक विचारों का हमारी मित्रता पर असर पड़े।
अमृतराय ने संदिग्ध भाव से कहा–तुम कहते हो मगर मुझे विश्वास नहीं आता।
दान०–प्रमाण मिल जाएगा तब तो मानोगे?
अमृत०–और तो घर में सब कुशल है न? अम्माजी से मेरा प्रणाम कह देना।
दान०–अभी बैठो, इतनी जल्दी क्या है? भोजन करके जाना।
अमृत०–कई जगह जाना है। अनाथालय के लिए चन्दे की अपील करनी है। जरा दस-पांच आदमियों से मिल तो लूं। भले आदमी, विरोध ही करना था, तो अनाथालय बन जाने के बाद करते। तुमने रास्ते में कांटे बिखेर दिये।
प्रेमा अभी पान ही बना रही थी और अमृतराय चल दिए। दाननाथ ने आकर कहा–वाह, अब तक तुम्हारे पान ही नहीं लगे, वह चल दिये। आज मान गये।
प्रेमा–वह भी सुनने गये थे?
दान०–हां, पीछे खड़े थे। सामने होते तो आज उनकी दुर्गति हो जाती। अनाथालय के लिए चन्दे की अपील करने वाले हैं। मगर देख लेना, कौड़ी न मिलेगी। हवा बदल गई। अब दूसरे किसी शहर से चाहे चन्दा वसूल कर लावें, यहां तो एक पाई न मिलेगी।
प्रेमा–यह तुम कैसे कह सकते हो? पुराने पण्डित चाहे सुधारों के विरोध करें, लेकिन शिक्षित-समाज तो नहीं कर सकता।
दान०–मैं शर्त बद सकता हूं, अगर उन्हें पांच हजार भी मिल जायें।
प्रेमा–अच्छा, उन्हें एक कौड़ी भी न मिलेगी। झगड़ा काहे का? अब रुपये लाओ, कल पूजा कर आऊं। भाभी और पूर्णा दोनों को बुलाऊंगी। कुछ मुहल्ले की हैं। दस-बीस ब्राह्मणों का भोजन भी आवश्यक ही होगा।
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