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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578
आईएसबीएन :978-1-61301-111

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


प्रेमा ये बातें सुनकर पहले ही से भरी बैठी थी। यह प्रश्न चिनगारी का काम कर गया; मगर कहती क्या? दिल मैं ऐंठकर रह गई। बोली–मैं इन झगड़ों में नहीं पड़ती। आप जानें वह जानें। मैं दोनों तरफ का तमाशा देखूंगी। कहिए, अम्मांजी तो कुशल से हैं। भाभीजी आजकल क्यों रूठी हुई हैं? मेरे पास कई दिन हुए खत भेजा था कि मैं बहुत जल्द मैके चली जाऊंगी।

कमला०–अभागों के लिए नरक में भी जगह नहीं मिलती। एक दर्जन चिट्ठियां तो लिख चुकी हैं; मगर मैकेवालों में तो कोई बात भी नहीं पूछता। कुछ समझ ही में नहीं आता है, चाहती क्या हैं, रात-दिन जला करती हैं, शायद ईश्वर ने उन्हें जलने के लिए बनाया है। मैं एक दिन खुद ही मैके पहुंचाए देता हूं। उन्हें मजा तब आए, जब रुपयों की थैली दूं और कुछ पूछूं न। उनका जिस तरह जी चाहे खर्च करें। सो, यहां अपने आप का भी विश्वास नहीं करते, वह क्या चीज हैं!

कमला चला गया। दाननाथ भी उनके साथ आए और दोनों बातें करते हुए बड़ी दूर तक गए।

सहसा कमला ने रुककर कहा–साढ़े नौ बज रहे हैं। चलो सिनेमा देख आएं।

दान०–इतनी वक्त! कम-से-कम एक बजे तक होगा। नहीं साहब, आप जाएं, मैं जाता हूं।

कमला ने दाननाथ का हाथ पकड़कर अपनी ओर घसीटते हुए कहा–अजी चलो भी। वहीं होटल में बैठकर खा लेंगे, तुम्हें मैनेजर से मिलाएंगे। बड़ा सोहबती आदमी है। उसी के घर भोजन भी करेंगे।

दान०–नहीं भाई साहब, माफ कीजिए। बेचारी औरतें बैठी राह देखती रहेंगी।

कमला०–अच्छा, अगर एक दिन बारह बजे तक बैठी रहेंगी, तो कौन मरी जाती हैं। औरतों को बहुत सिर चढ़ाना अच्छा नहीं होता!

दाननाथ ने दो-चार बार मना किया; मगर कमला ने नहीं छोड़ा। दोनों ने मैनेजर के घर भोजन किया और सिनेमा हाल में जा बैठे; मगर दाननाथ को जरा भी आनन्द न आता था। उनका दिल घर की ओर लगा था। प्रेमा बैठी होगी–अपने दिल में क्या कहती होगी? घबरा रही होगी। बुरा फंसा। कमला बीच-बीच में कहता जाता था–वह देखो चैपलिन आया–वाह-वाह! क्या कहना है पट्ठे तेरे दम का जमूड़ा है–अरे यार, किधर देख रहे हो, जरा इस औरत को देखो, सच कहता हूं, यह मुझे पानी भरने का नौकर रख ले, तो रह जाऊं–वाह! ऐसी-ऐसी परियां भी दुनिया में हैं। एक हमारा देश खूसट है, तुम तो सो रहे हो जी!

बड़ी मुश्किल से अवकाश आया। कमला तो पान और सिगरेट लेने चले, दाननाथ ने दरवाजे से निकलकर घर की राह ली।

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