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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578
आईएसबीएन :978-1-61301-111

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


एक वृद्ध महाशय ने पूछा–आप कौन हैं?

महिला–मैं आपके शहर के रईस लाला बदरीप्रसाद की कन्या हूं और इस नाते से आपकी बहन और बेटी हूं। ईश्वर के लिए बैठ जाइए। बहन का क्या अपने भाइयों से इतनी याचना करने का अधिकार नहीं है? यह सभा आज इसलिए की गई है कि आपसे इस नगर में एक ऐसा स्थान बनाने के लिए सहायता मांगी जाए, जहां हमारी अनाथ, आश्रय-हीन बहनें अपनी मान-मर्यादा की रक्षा करते हुए शान्ति से रह सकें। कौन ऐसा मुहल्ला है, जहां ऐसी दस-पांच बहने नहीं हैं। उनके ऊपर जो बीतती है वह क्या आप अपनी आंखों से नहीं देखते? कम-से-कम अनुमान तो कर ही सकते हैं। वे जिधर आंखें उठाती हैं, उधर ही उन्हें पिशाच खड़े दिखाई देते हैं; जो उनकी दीनावस्था को अपनी कुवासनाओं के पूरा करने का साधन बना लेते हैं। हमारी लाखों बहनें इस भांति केवल जीवन-निर्वाह के लिए पतित हो जाती हैं। क्या आपको उन पर दया नहीं आती? मैं विश्वास से कह सकती हूं कि अगर उन बहनों को रूखी रोटियों और मोटे कपड़ों का भी सहारा हो, तो वे अन्त समय तक अपने सतीत्व की रक्षा करती रहें। स्त्री हारे दर्जे ही दुराचारिणी होती है। अपने सतीत्व से अधिक उसे संसार की और किसी वस्तु पर गर्व नहीं होता, न वह किसी चीज को इतना मूल्यवान समझती है। आप सभी सज्जनों की कन्याएं और बहनें होंगी। क्या उनके प्रति आपका कोई कर्तव्य नहीं है? और आप लोगों में ऐसा एक भी पुरुष है, जो इतना पाषाण हृदय हो, मैं यह नहीं मान सकती। यह कौन कह सकता है कि अनाथों की जीव-रक्षा धर्म-विरूद्ध है? जो यह कहता है वह धर्म के नाम को कलंकित करता है। दया धर्म का मूल है। मेरे भाई बाबू अमृतराय ने ऐसा एक स्थान बनवाने का निश्चय किया है। वह अपनी सारी सम्पत्ति उस पर अर्पण कर चुके हैं। अब वह इस काम में आपकी मदद मांग रहे हैं। जिस आदमी के पास लाखों की जायदाद थी, आज भिखारी बन कर आपसे भिक्षा मांग रहा है। आपमें सामर्थ्य हो तो भिक्षा दीजिए। न सामर्थ्य हो तो कह दीजिए–भाई, दूसरा द्वारा देखो, मगर उसे ठोकर तो न मारिए, उसे गालियां तो न दीजिए। यह व्यवहार आप जैसे पुरुषों को शोभा नहीं देता।

एक सज्जन बोले–कमला बाबू को क्यों नहीं समझातीं?

दूसरे सज्जन बोले–और बाबू दयानाथ भी तो हैं?

प्रेमा एक क्षण के लिए घबड़ा गईं। इस आपत्ति का क्या उत्तर दे। आपत्ति सर्वथा न्याय-संगत थी। जो अपने घर के मनुष्य को नहीं समझा सकता, वह दूसरों को समझाने के लिए किस मुंह से खड़ा हो सकता है? कुछ सोचकर बोली–हां, अवश्य हैं, लेकिन मुझे आध घण्टा पहले तक बिल्कुल मालूम न था कि उन लोगों के समाजिक उपदेशों का यह फल हो सकता है, जो सामने दिखाई दे रहा है। पिता हो, पति हो, अथवा भाई हो, यदि उसने इस सभा में विघ्न डालने का कोई प्रयत्न किया है, तो मैं उसके इस काम को हेय समझती हूं, लेकिन मुझे विश्वास नहीं आता कि कोई विचारवाला मनुष्य इतनी छोटी बात कर सकता है।

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