उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
एक मोटे ताजे पगड़ीवाले आदमी ने कहा–और जो हम कमला बाबू से पुछाय देई? हमका इहां का लेवे रहा जौन औतेन! वहीं लोग भेजेन रहा, तब आयन।
गुण्डे का हृदय कितना सरल, कितना न्याय-प्रिय था! उसे अब ज्ञात हो रहा था कि अमृतराय अधर्म का प्रचार नहीं, धर्म का प्रचार कर रहे हैं। स्वयं उसकी एक विधवा बहन हाथ से निकल चुकी थी। ऐसी उपयोगी संस्था का विरोध करते हुए अब स्वयं लज्जा आ रही थी। वह इस अपराध का विरोध करते हुए मन्त्र-दाताओं के ऊपर छोड़ रहा था।
प्रेमा ने इसी तरह कोई आधा घण्टे तक अपनी मधुर-वाणी, अपने निर्भय सत्य प्रेम और अपनी प्रतिभा से लोगों को मंत्र-मुग्ध रखा। उसका आकस्मिक रूप से मंच पर आ जाना जादू का काम कर गया। एक महिला का अपमान इतना आसान न था, जितना अमृतराय का। पुरुष का अपमान एक साधारण बात है, स्त्री का अपमान, आग में कूदना है। फिर स्त्री कौन? शहर के प्रधान रईस की कन्या लोगों के विचारों में क्रान्ति-सी हो गई। जो विघ्न डालने आए थे, वे भी पग उठे। जब प्रेमा ने चन्दे के लिए प्रार्थना करके अपना आंचल फैलाया, तो वह दृश्य सामने आया, जिसे देखकर देवता भी प्रसन्न हो जाते! सबसे बड़ी रकमें उन गुण्डों ने दीं, जो यहां लाठी चलाने आए थे; गुण्डे अगर किसी की जान ले सकते हैं, तो किसी के लिए जान भी दे सकते हैं। उनको देखकर बाबुओं को भी जोश आया। जो केवल तमाशा देखने आए थे, वे भी कुछ-न-कुछ दे गए। जन-समूह विचार से नहीं, आवेश से काम करता है समूह में ही अच्छे कामों का नाश होता है और बुरे कामों का भी। कितने मनुष्य तो घर से रूपये लाए। सोने की अंगूठियों, ताबीजों और कण्ठों का ढेर लग गया, जो गुण्डों की कीर्ति को उज्जवल कर रहा था। दस-बीस गुण्डे तो प्रेमा के चरण छूकर घर गए। वे इतने प्रसन्न थे, मानों तीर्थ करके लौटे हों।
सभा विसर्जित हुई, तो अमृतराय ने प्रेमा से कहा–यह तुमने क्या अनर्थ कर डाला प्रेमा? दाननाथ तुम्हें मार डालेगा।
प्रेमा ने हंसकर कहा–जब इन उजड्डों को मना लिया, तो उन्हें भी मना लूंगी।
अमृत–हां प्रेमा, तुम सब कुछ कर सकती हो। मैं तो आज दंग रह गया। अपनी भूल पर पछताता हूं।
प्रेमा ने कठोर होकर कहा–अपने ही हाथों तो।
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