उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
पूर्णा ने लज्जित होकर कहा–तुमने यह कैसे समझ लिया कि मैं तुम्हें नीच और भ्रष्ट समझती हूं?
कमला०–आखिर गाड़ी से कूद पड़ने को तैयार थीं? क्यों बार-बार तांगा लौटा देने का जिक्र कर रही थीं। चादर उतार डालो, जरा आराम से बैठो, यह भी अपना ही घर है, कोई सराय नहीं। हां, अब बताओ तुम मुझसे क्यों इतना डरती हो? क्या मैं हत्यारा हूं? लम्पट हूं? लुटेरा हूं ? उचक्का हूं? मैंने तुम्हारे साथ ऐसा कौन सा व्यवहार किया है, जिससे तुमने मेरे विषय में ऐसी राय जमा ली? मैंने तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध मुंह से एक शब्द भी नहीं निकाला। फिर भी तुम मुझे इतना नीच समझती हो। तुम्हारी इस दुर्भावना का एक ही कारण हो सकता है। सुमित्रा ने तुम्हारे कान भरे हैं। आज मैंने देखा, वह तुम्हारे पास बैठी गप्पें हांक रही थी। तुम उसकी बातों में आ गई। मैं जानता हूं, उसने मेरे विषय में खूब जहर उगला होगा। मुझे दगाबाज, कमीना, लम्पट सभी कुछ कहा होगा। यह सब केवल इसलिए कि तुम्हारा दिल मुझसे फिर जाए। मैं उसकी नस-नस पहचानता हूं। वह अगर मुझे अपनी मुट्ठी में रख सके तो मैं उसका उपास्य, स्वामी, ईश्वर सब कुछ हूं। उसकी मुट्ठी में न रहूं, तो लम्पट, दुष्ट, धूर्त हूं।
उसके लिए यह असह्य है कि मैं किसी की ओर आंख उठाकर देख भी लूं। नहीं वह मुझे अपना कुत्ता बनाकर रखना चाहती है। नित्य उसके पीछे अपनी दुम-हिला-हिलाकर दौड़ता फिरूं–उसकी आवाज सुनते ही आकर उसके पांव चाटने लगूं, तब वह मुझे अपनी मेज पर बिठाएगी, गोद में उठाकर प्यार करेगी, थपकेगी, सहलायगी; लेकिन कहीं उसके इशारे पर दौड़ा हुआ न आया, तो फिर डण्डा, हण्टर, ठोकर के लिए मुझे तैयार रहना चाहिए। अगर मैं कुत्ता बनकर रह सकता, आज मुझ-सा भाग्यवान मनुष्य संसार में कोई न होता। लेकिन दुर्भाग्य है कि मुझमें वह गुण नहीं। मैं पुरुष ही रहना चाहता हूं।
पूर्णा के हृदय से सुमित्रा का जादू उतरने लगा। अस्थिरता दुर्बल आत्मा का मुख्य लक्षण है। उन पर न बातों को जमते देर लगती है न मिटते। बोली–वह तो सारा अपराध तुम्हारा ही बताती हैं।
‘हां-हां, वह ता बताएगी ही और क्या कहती थीं?’
‘सैकड़ों बातें कीं, कहा तक कहूं? याद भी तो नहीं।’
‘तभी तुम मेरे साथ आते घबड़ाती थीं। तुम्हें यह बाग पसन्द है?’
‘जगह तो बुरी नहीं।’
‘जी चाहता है एकाध महीना तुम्हें यही रखूं।’
‘सुमित्रा भी रहने पर राजी हों तब न!’
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