उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
‘उसे तो मैं भूलकर भी न लाऊं।’
‘तो मैं अकेली यहां कैसे रहूं?’
‘तुम्हारे यहां रहने की किसी को खबर ही न होगी। तुम्हारे वृन्दावन जाने की बात उड़ा दी जाएगी पर रहोगी, तुम इस बगीचे में! मैं केवल एक बार घर चला जाया करूंगा। यहां के आदमियों को ताकीद कर दी जाएगी–किसी को कानोकान खबर न होगी। उस आनन्द की कल्पना से मेरा हृदय नाच उठता है। वही जीवन मेरे सांसारिक आनन्द का स्वर्ग होगा। कोई बात नहीं हिल सकती। सुमित्रा मुझसे रुष्ट हैं, तो यह ईश्वर की इच्छा है। तुम्हारी मुझ पर कृपा है, तो यह भी ईश्वर की इच्छा है। क्या हमारा और तुम्हारा संयोग ईश्वर की इच्छा के बिना हो सकता है–कभी नहीं, कभी नहीं! यह लीला वह क्यों खेल रहा है, यह हम और तुम नहीं समझ सकते पूर्णा! बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी नहीं समझ सकते; पर हो रहा है सब उसी की इच्छा से। धर्म और अधर्म यह सब उसका ढकोसला है! अगर अभी तक तुम्हारे मन में कोई धार्मिक शंका हो, तो उसे निकाल डालो। आज से तुम मेरी प्राणेश्वरी हो और मैं तुम्हारा दास।’
यह कहते-कहते कमला ने पूर्णा का हाथ पकड़कर अपनी गर्दन में डाल लिया और दोनों प्रेमालिंगन में मग्न हो गये! पूर्णा जरा भी नहीं झिझकी, अपने को छुड़ाने की जरा भी चेष्टा न की; किंतु उसके मुख पर प्रफुल्लता का कोई चिन्ह न था–न अधरों पर मुस्कान की रेखा थी, न कपोलों पर गुलाब की झलक, न नथनों में अनुराग की लालिमा। उसका मुख मुरझाया हुआ था, नीचे झुकी हुई आंखें आंसुओं से भरी हुई, सारी देह शिथिल-सी जान पड़ती थी।
कमला ने पूछा–उदास क्यों हो प्रिये? यह तो आनन्द का समय है।
पूर्णा ने ग्लानियम स्वर में कहा–उदास तो नहीं हूं।
पूर्णा क्यों उदास थी, वह इसे कमला से न कह सकी। उसे इस समय वसन्त कुमार की याद न थी, अधर्म की शंका न थी; बल्कि, कमला के प्रगाढ़ आलिंगन में मग्न इस समय उसे यह शंका हो रही थी कि इस प्रणय का अंत भी क्या वैसा ही भयंकर होगा? निर्मम विधि लीला फिर उसका सुख-स्वप्न तो न भंग कर देगी! वह दृश्य फिर उसकी आंखों में फिर गया, जब पहले-पहल उसके स्वामी ने उसे गले लगाया था। उस समय उसका हृदय कितना निःशंक कितनी उमंगों से भरा हुआ था; पर इस समय उमंगों की जगह शंकाएं थी, बाधाऐं थीं।
वह इसी अर्ध-चेतना की दशा में थी कि कमला ने धीरे से उसे एक कोच पर लेटा दिया, और द्वार बंद करने जा रहा था कि पूर्णा ने उसके मुख की ओर देखा, और चौंक पड़ी। कमला की दोनों आंखों से चिनगारियां-सी निकल रही थीं। यह आन्तरिक उल्लास की दिव्य-मधुर ज्योति न थी, यह किसी हिंसक पशु की रक्त-क्षुधा का प्रतिबिंब था। इसमें प्रेमी की प्रदीप्त आकांक्षा नहीं, ग्रीष्म का हिंसा संकल्प था। इनमें श्रावण के श्याम मेघों की सुखद छवि नहीं, ग्रीष्म के मेघों का भीषण प्रवाह था। इसमें शरद-ऋतु के निर्मल जल प्रवाह का कोमल संगीत नहीं, प्रवास की प्रलंयकारी बाढ़ का भयंकर नाद था। पूर्णा सहम उठी। झपटकर कोच से उठी, कमला का हाथ झटके से खींचा और द्वार खोलकर बरामदे से बाहर निकल आयी।
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