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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578
आईएसबीएन :978-1-61301-111

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


कमला ने क्रूर दृष्टि से देखकर कहा–क्यों-क्यों पूर्णा? कहां जाती हो?

पूर्णा ने निर्भय होकर कहा–मैं घर जाऊंगी? तांगा कहां है?

‘घर जाने की अभी क्या जल्दी है? तुम डर क्यों गयी? ’

‘तांगा लाओ, मैं जाऊंगी।’

‘इतनी जल्दी तो तुम न जा सकोगी पूर्णा! आखिर एकाएक तुम्हें यह क्या हो गया?

‘कुछ हुआ नहीं, मैं यहां एक क्षण भर भी नहीं रहना चाहती।’

‘और यदि मैं न जाने दूं?’

‘तुम मुझे रोक नहीं सकते?’

‘मान लो, मैं रोक ही लूं?’

‘तो मैं चिल्लाकर शोर मचाऊंगी।’

कमला ने हंसकर कहा–तुम्हारा शोर सुनने वाला यहां है ही कौन? तुम अब मेरे काबू में हो। अब यहां से बचकर नहीं जा सकती, दोनों माली मेरे नौकर हैं। वे अब कभी न आवेंगे। तीसरा आदमी यहां मील भर तक नहीं।

पूर्णा ने कमला की ओर आग्नेय नेत्रों से देखकर कहा–कमला बाबू! मैं हाथ जोड़कर कहती हूं, मुझे तुम यहां से जाने दो, नहीं तो अच्छा न होगा। सोचो, अभी एक मिनट पहले तुम मुझसे कैसी बातें कर रहे थे? क्या तुम इतने निर्लज्ज हो कि मुझ पर बलात्कार करने के लिए भी तैयार हो? लेकिन तुम धोखे में हो। मैं अपना धर्म छोड़ने के पहले या तो अपने प्राण दे दूंगी या तुम्हारे प्राण ले लूंगी।

कमला ने हंसी उड़ाते हुए कहा–तब तो सचमुच तुम वीर महिला हो। मगर खेद यही है कि यह रंग-मंच नहीं है, यहां तुम्हारी वीरता पर तालियां बजाने वाला कोई नहीं है।

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