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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578
आईएसबीएन :978-1-61301-111

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


दोपहर होते-होते बगीचे का फाटक बंद हो गया। बग्घी, मोटर तांगा किसी की भी आवाज भी न सुनाई देती थी। इसी नीरवता में पूर्णा भविष्य की चिंता में गोते खा रही थी।

अब उसके लिए कहां आश्रय था? एक ओर जेल की दुस्सह यंत्रणाएं थीं, दूसरी ओर रोटियों के लाले, आंसुओं की धार और घोर प्राण-पीड़ा! ऐसे प्राणी के लिए मृत्यु के सिवा और कहां ठिकाना है?

जब संध्या हो गई और अंधेरा छा गया, तो पूर्णा वहां से बाहर निकली और सड़क पर खड़ी होकर सोचने लगी–कहां जाऊं? जीवन में अब अपमान, लज्जा, दुःख और संताप के सिवाय और क्या है? अपने पति के बाद ही उसने क्यों न अपने प्राणों को त्याग दिया, क्यों न उसी शव के साथ सती हो गई? क्यों उस समय उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी? वह जानती थी कि भले आदमी ऐसे दुष्ट होते हैं, अपने मित्र भी गले पर छुरी फेरने को तैयार हो जाते हैं। अब मृत्यु के सिवा उसे और कहीं ठिकाना नहीं।

एक बूढ़े आदमी को देखकर वह एक वृक्ष की आड़ में खड़ी हो गई। जब बूढ़ा निकट आ गया तो पूर्णा को विश्वास हो गया कि इसके सामने निकलने में कोई भय नहीं है; तो उसने धीरे से पूछा–बाबा, गंगाजी का रास्ता किधर है?

बूढ़े ने आश्चर्य से कहा–गंगाजी यहां कहां है। यह तो मड़वाडीह है।

पूर्णा–गंगाजी यहां से कितनी दूर हैं?

बूढ़ा–दो कोस।

इस दिशा में दो कोस जाना पूर्णा को असह्य-सा जान पड़ा। उसने सोचा, क्या डूबने के लिए गंगा ही है। यहां कोई तालाब या नदी नहीं होगी? वह वहीं खड़ी रही कुछ निश्चय न कर सकी।

बूढ़े ने कहा–तुम्हारा घर कहां है बेटी? कहां जाओगी?

पूर्णा सहम उठी। अब तक उसने कोई कथा न गढ़ी थी, क्या बतलाती?

बूढ़े ने फिर पूछा–गंगाजी ही जाना है या और कहीं और?

पूर्णा ने डरते-डरते कहा–वहीं एक मुहल्ले में जाऊंगी।

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