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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578
आईएसबीएन :978-1-61301-111

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


बूढ़े ने ठिठककर पूर्णा को सिर से पैर तक देखा और बोला–वहां किस मुहल्ले में जाओगी? सैकड़ों मुहल्ले हैं?

पूर्णा ने कोई जवाब न दिया। उसके पास जवाब ही क्या था?

बूढ़े ने जरा झुंझलाकर कहा–यहां किस गांव में तुम्हारा घर है?

पूर्णा कोई जवाब न दे सकी! वह पछता रही थी कि नाहक इस बूढ़े को मैंने छेड़ा।

बूढ़े ने अबकी कठोर स्वर में पूछा–तू अपना पता क्यों नहीं बताती? क्या घर से भाग आई है?

पूर्णा थर-थर कांप रही थी। एक शब्द भी मुंह से न निकाल सकी।

बूढ़े को विश्वास हो गया, यह स्त्री घर से रूठकर आई है। दया आ गई। बोला–बेटी, घर से रूठकर भागना अच्छा नहीं। जमाना खराब है। कहीं बदमाशों के पंजे में फंस जाओ तो फिर सारी जिन्दगी भर के लिए दाग लग जाएगा। घर लौट जाओ बेटी, बड़े-बूढ़ों दो बात कहें तो गम खाना चाहिए। वे तुम्हारे भले के लिए कहते हैं। चलो, मैं तुम्हें घर पहुंचा दूं।

पूर्णा के लिए अब जवाब देना लाजिम हो गया। बोली–बाबा, मुझे घरवालों ने निकाल दिया है।

‘क्यों निकाल दिया? किसी से लड़ाई हुई थी?’

‘नहीं बाबा, मैं विधवा हूं। घरवाले मुझे रखना नहीं चाहते।’

‘सास-ससुर हैं?’

‘नहीं बाबा, कोई नहीं है। एक नातेदार के यहां पड़ी थी, आज उसने भी निकाल दिया।’

बूढ़ा समझ गया। अनाथिनी रात के समय गंगा का रास्ता और किसलिए पूछ सकती है? जब वहां भी इसका कोई नहीं है तो फिर गंगा-तट पर जाने का और अर्थ ही क्या हो सकता है?

बोला–वनिता भवन में क्यों नहीं चली जातीं?

‘वनिता-भवन क्या है बाबा! मैंने तो सुना भी नहीं।’

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