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प्रेम चतुर्थी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8580
आईएसबीएन :978-1-61301-178

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यदि अपने घोड़े और फिटन, सैर और शिकार, नौकर-चाकर और स्वार्थसाधक हित-मित्रों से रहित होकर मैं सहस्रों अमीर-गरीब कुटुम्बों का, विधवाओं, अनाथों का भला कर सकूँ, तो मुझे इसमें कदापि विलम्ब न करना चाहिए। सहस्रों परिवारों के भाग्य इस समय मेरी मुट्टी हैं। मेरा सुख-भोग उनके लिए विष और मेरा आत्म-संयम उनके लिए अमृत है। मैं अमृत बन सकता हूँ, तो विष क्यों बनूँ? और फिर इसे आत्म त्याग समझना मेरी भूल है। यह एक संयोग है कि मैं आज इस जायदाद का अधिकारी हूँ, मैंने उसे कमाया नहीं। उसके लिए रक्त नहीं बहाया। पसीना नही बहाया। यदि यह जायदाद मुझे न मिली होती तो मैं सहस्रों दीन भाइयों की भाँति आज जीविकोपार्जन में लगा रहता। मैं क्यों न भूल जाऊँ कि मैं इस राज्य का स्वामी हूँ। ऐसे ही अवसरों पर मनुष्य की परख होती है। मैंने वर्षों पुस्तकावलोकन किया, वर्षों परोपकार- सिद्धान्त का अनुनायी रहा। यदि इस समय मैं उन सिद्धांतों को भूल जाऊँ, और स्वार्थ को मनुष्यत्व और सदाचार से बढ़ने दूँ तो, वस्तुत : यह मेरी अत्यन्त कायरता और स्वार्थ-परता होगी। भला स्वार्थ-साधन की शिक्षा के लिए गीता, मिल, एमर्सन और अरस्तू का शिष्य बनने की क्या आवश्यकता थी? यह पाठ तो मुझे अपने दूसरे भाइयों से यों ही मिल जाता? प्रचलित प्रथा से बढ़कर और कौन गुरु था? साधारण लोगों की भाँति क्या मैं भी स्वार्थ के सामने सिर झुका दूँ, तो फिर विशेषता क्या रही? नहीं, मैं विवेक-बुद्धि का खून न करुँगा। जहाँ पुण्य कर सकता हूँ, वहाँ मैं पाप न करूँगा। परमात्मन्! तुम मेरी सहायता करो तुमने मुझे राजपूत के घर में जन्म दिया है। मेरे कर्म से इस महान् जाति को लज्जित न करो। नहीं, कदापि नहीं। यह गर्दन स्वार्थ के सम्मुख न झुकेगी। मैं राम, भीष्म और प्रताप का वंशज हूँ। शरीर का सेवक न बनूँगा।

कुँवर जगदीशसिंह को इस समय ऐसा ज्ञात हुआ, मानो वे किसी ऊँचे मीनार पर चढ़ गये हैं, चित्त अभिमान से पूरित हो गया। आँखें प्रकाशमान हो गयीं। परन्तु एक ही क्षण में इस उमंग का उतार होने लगा। ऊँची मीनार से नीचे की ओर आँखें गयीं। सारा शरीर काँप उठा। उस मनुष्य की-सी दशा हो गयी, जो किसी नदी के तट पर बैठा उसमें कूदने का विचार कर रहा हो।

उन्होंने सोचा, क्या मेरे घर के लोग मुझसे सहमत होंगे? यदि मेरे कारण वे सहमत भी हो जायँ, तो भी मुझे क्या अधिकार है कि अपने साथ उनकी इच्छाओं का भी बलिदान करूँ? और तो और, माताजी कभी न मानेंगी और कदाचित् भाई लोग भी अस्वीकार करें।

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