कहानी संग्रह >> प्रेम चतुर्थी (कहानी-संग्रह) प्रेम चतुर्थी (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द की चार प्रसिद्ध कहानियाँ
इन अन्यायों के होते हुए भी बाबू हरिबिलास का-सा कर्तव्यशील अफसर सारे प्रान्त में न था। उन्हें विश्वास था कि मेरे स्थानीय अफसर कितने ही पक्षपाती हों, उनकी नीति कितनी ही संकुचित हो, पर देश का शासन सत्य और न्याय पर ही स्थित है। अँग्रेजी राज्य की वह सदैव स्तुति किया करते थे। यह इसी शासन-काल की उदारता थी कि उन्हें ऐसा ऊँचा पद मिला था, नहीं तो उनके लिए यह अवसर कहाँ थे? दीनों और असहायों की इतनी रक्षा किसने की? शिक्षा की उन्नति कब हुई? व्यापार का इतना प्रसार कब हुआ? राष्ट्रीय भावों की ऐसी जागृति कहाँ थी? वह जानते थे कि इस राज्य में भी कुछ-न-कुछ बुरा-हुआ अवश्य है। मानवीय संस्थाएँ कभी दोष-रहित नहीं हो सकतीं, लेकिन बुराईयों से भलाइयों का पल्ला कहीं भारी है। यही विचार थे, जिनसे प्रेरित होकर यूरोपीय महासमर में हरिबिलास ने सरकारी खैर-ख्वाही में कोई बात उठा नहीं रखी, हजारों रंगरूट भरती कराये, लाखों रुपये कर्ज दिलवाये और महीनों घूम-घूमकर लोगों को उत्तेजित करते रहे। इसके उपलक्ष्य में उन्हें राय बहादुर की पदवी मिल गयी।
जाडे के दिन थे। डिप्टी हरिबिलास बाल-बच्चों के साथ दौरे पर थे। बड़े दिन की तातील हो गयी थी, इसलिए तीनों लड़के भी आये हुए थे। बड़ा शिवबिलास लाहौर के मेडिकल कालेज में पढ़ता था। सँझला संतविलास इलाहाबाद में कानून पढ़ता था और छोटा श्रीबिलास लखनऊ के ही एक स्कूल का विद्यार्थी था। शाम हो रही थी, डिप्टी साहब अपने तम्बू के सामने एक पेड़ के नीचे कुरसी पर बैठे हुए थे। इलाके के कई जमींदार भी मौजूद थे।
एक मुसलमान महाशय ने कहा, हुजूर आजकल ताल में चिड़ियाँ खूब हैं। शिकार खेलने का अच्छा मौका है।
दूसरे महाशय बोले, हुजूर जिस दिन चलने को कहें, बेगार ठीक कर लिए जायँ! दो-तीन डोंगियाँ भी जमा कर ली जायँ।
शिवबिलास–क्या अभी तक आप लोग बेगार लेते ही जाते हैं?
‘जी हाँ इसके बगैर काम कैसे चलेगा? मगर हाँ, अब मार-पीट बहुत करनी पड़ती है।
एक ठाकुर साहब बोले, जब से गाँव के मनई बसरा में मजूर होके गये तब से कोई का मिजाजै नहीं मिलत। बात तक तो सुनत नहीं है। ई लड़ाई हमका मटियामेट कै दिहेस।
शिबबिलास–आप लोग मजूरी भी तो बहुत कम देते हैं।
ठाकुर–हुजूर, पहले दिन-भर दुई पैसा देत रहेन, अब तो चार देइत है, तौनो पर कोऊ बिना मार-गारी खाये बात नहीं सुनत है।
शिवबिलास–खूब! चार पैसे तो आप मजदूरी देते हैं और चाहते हैं कि आदमियों को गुलाम बना लें। शहर में कोई मजदूर आठ आने से कम में नहीं मिल सकता।
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