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प्रेम चतुर्थी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8580
आईएसबीएन :978-1-61301-178

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इतने में बेगार ने चिट्ठियों का थैला लाकर डिप्टी साहब के आगे रख दिया। यद्यपि शहर यहाँ से १५ मील के लगभग था, पर एक बेगार प्रतिदिन डाक लाने के लिए भेजा जाता था। डिप्टी साहब ने उत्सुकता के साथ थैला खोला तो उसमें से लाल फीते से बँधा हुआ एक सरकारी ‘कम्यूनिक’ (प्रकाश पत्र) निकल पड़ा। उसे गौर से पढ़ने लगे।

आधी रात जा चुकी थी, किन्तु हरिबिलास अभी तक करवट बदल रहे थे। मेज पर लैम्प जल रहा था। वे उसी लाल फीते से बँधे हुए पत्र को बारबार देखते और विचारों में डूब जाते। वह लाल फीता उन्हें न्याय और सत्य के खून में रँगा हुआ जान पड़ता था। लगता किसी घातक की रक्तमय आँखें थीं जो उनकी ओर घूर रही थीं या एक ज्वाला-शिखा जो उनकी आत्मा और सत्य-ज्ञान को निगल जाने के लिए उनकी ओर चली आती थी। वे सोच रहे थे, अब तक मैं समझता था कि मेरा कर्तव्य न्याय पर चलना है। अब मालूम हुआ कि यह मेरी भूल थी। मेरा कर्तव्य न्याय का गला घोंटना है, नहीं तो मुझे ऐसे आदेश क्यों मिलते? क्या समाचार-पत्रों का पढ़ना भी कोई अपराध है? क्या दीन किसानों की रक्षा करना भी कोई पाप है? मैं ऐसा नहीं समझता। मुझे उन साधु संन्यासियों पर कड़ी दृष्टि रखने का हुक्म दिया गया है जो धर्मोपदेश करते हुए दिखाई दें। यही नहीं, मुझे यह भी देखना चाहिए कि कौन गजी-गाढ़े के कपड़े पहने हुए है, किसके सिर पर कैसी टोपी है, उस टोपी पर कैसी छाप लगी हुई है। चरखा चलाने वालों पर भी नजर रखनी चाहिए, मुझे उन लोगों के नाम भी अपने रोजनामचे में दर्ज करने चाहिए, जो राष्ट्रीय पाठशालाएँ खोलें, जो देहातों में पंचायतें बनायें, जो जनता को नशे की चीजें त्याग करने का उपदेश करें। इस आज्ञा के अनुसार वे भी राजविद्रोही हैं, जो लोगों में स्वास्थ्य के नियमों का प्रचार करें, ताउन और हैजे के प्रकोप से जनता की रक्षा करें, उन्हें मुफ्त दवाएँ दें, सारांश यह कि मुझे जाति के सेवकों का, हितैषियों का शत्रु बनना चाहिए। इसलिए कि मैं शासन का एक अंग हूँ।

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