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प्रेम चतुर्थी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8580
आईएसबीएन :978-1-61301-178

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उन्होंने एक बार फिर लाल फीता की ओर देखा। हाँ, तो इस दशा में मेरा कर्तव्य क्या है? अपनी जाति का साथ दूँ या विजातीय सरकार का? इस समस्या का कारण यही है कि हमारे शासक विजातीय हैं और उनका स्वार्थ प्रजा के हित से भिन्न है। वे अपनी जाति के स्वार्थ के लिए, गौरव के लिए, व्यापारिक उन्नति के लिए यहाँ के लोगों को अनंत काल तक इसी दशा में रखना चाहते हैं। इसीलिए प्रजा के राष्ट्रीय भावों को जागते देखकर वे उनको दबाने पर तुल जाते हैं। उन्हें वे सरल व्यवस्थायें आपत्तिजनक जँचने लगती हैं जिन्हें प्रजा अपने आत्म सुधार के लिए करती है। नहीं तो क्या मद-त्याग के उपदेश भी सरकार की आँखों में खटकते? शासन का मुख्य धर्म है प्रजा की रक्षा, न्याय और शान्ति का विधान। अब तक मैं समझता था कि सरकार इस कर्तव्य को सर्वोपरि समझती है, इसलिए मैं उसका भक्त था। जब सरकार अपने धर्म-पथ से हट जाती है तो मेरा धर्म भी यही है कि उसका साथ छोड़ दूँ। अपने स्वार्थ के लिए देश का द्रोही नहीं बन सकता। सरकार से मेरा थोड़े दिनों का नाता है, देश से जन्म-भर का। क्या इस अस्थायी अधिकार के गर्व में अपने स्थायी सम्बन्ध को भूल जाऊँ। इस अधिकार के लिए क्या अब मुझे देश का शत्रु बनना पड़ेगा? क्या देश को अपने स्वार्थ पर न्यौछावर कर दूँ? एक तो वे हैं जो देश-सेवा पर आत्मसमर्पण कर देते हैं, उसके लिए नाना प्रकार के कष्ट झेलते हैं। एक मैं अभागा हूँ, जिसका काम यह है कि उन देश-सेवकों की जान का गाहक बनूँ। लेकिन यह सम्बन्ध तोड़ दूँ तो निर्वाह कैसे हो? जिन बच्चों को अब तक सभी सुख प्राप्त थे उन्हें अब दरिद्रता का शिकार बनना पड़ेगा। जिस परिवार का पालन-पोषण अब तक अमीरों के ढंग पर होता था, उसे अब रो-रोकर दिन काटने पड़ेंगे। घर की जायदाद मेरी शिक्षा की भेंट हो चुकी, नहीं तो कुछ खेती-बारी ही करके गुजर करता। वही तो मेरा मौरूसी पेशा था। कैसा सन्तोषमय जीवन था, अपने पसीने की कमाई खाते थे और सुख की नींद सोते थे। इस शिक्षा ने मुझे चौपट कर दिया, विलास का दास बना दिया, अनावश्यकताओं की बेड़ी पैरों में डाल दी। अब तो उस पुराने जीवन की कल्पना मात्र से प्राण सूख जाता है।

हा! हृदय में कैसी-कैसी अभिलाषाएँ थीं, कैसे-कैसे मनमोदक खाता था। शिवबिलास विलायत जाकर डाक्टरी पढ़ने का स्वप्न देख रहा है। सन्तबिलास को वकालत की धुन सवार है, छोटा श्रीबिलास अभी से सिविल सरविस की तैयारी कर रहा है। अब इन सबों के मन्सूबे कैसे पूरे होंगे। लड़कों को तो खैर छोड़ भी दूँ तो वे किसी-न-किसी तरह गुजर कर ही लेंगे, लड़कियों का क्या करूँ। सोचा था इनका विवाह उच्चकुल में करूँगा, जाति का भेद मिटा दूँगा। यह मनोकामना भी पूरी होती नहीं दीखती। कहीं दूसरी जगह नौकरी तलाश करूँ तो इतना वेतन कहाँ मिल सकता है? रईसों के दरबार में पहुँचना कठिन है। सरकार की अवज्ञा करनेवाले को धरती-आकाश कहीं भी ठिकाना नहीं। परमात्मन्, तुम्हीं सुझाओ क्या करूँ?

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