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प्रेम चतुर्थी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8580
आईएसबीएन :978-1-61301-178

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इन्हीं चिन्ताओं में पड़े-पड़े उन्हें नींद आ गयी।

एक सप्ताह बीत गया, पर बाबू हरिबिलास अभी तक दुविधा में ही पड़े थे। वह प्रायः उदास और खिन्न रहते थे। इजलास पर बहुत कम आते और आते भी तो मुकदमों की तारीख मुल्तवी करके फिर चले जाते लड़के और लड़कियों से भी बहुत कम बातचीत करते, बात-बात पर झुँझला पड़ते, कुछ चिड़चिड़े हो गये थे। उन्होंने स्त्री से इस समस्या की चर्चा की, पर वह इस्तीफा देने पर उनसे सहमत न हुई। उसमें न्याय का वह ज्ञान न था जो हरिबिलास के हृदय को व्यथित कर रहा था। लड़कों से इस विषय में कुछ कहने का उन्हें साहस न होता था डरते थे कि वे निराश, निरुत्साह हो जायेंगे। आनन्दमय जीवन को कैसी-कैसी कल्पनाएँ कर रहे होंगे, वह सब नष्ट हो जायँगी। इस विषय में तो अब उन्हें कोई सन्देह न था कि सरकार ने सत्पथ को त्याग दिया और उसकी नौकरी से मेरा उद्धार नहीं हो सकता। ऐसा हुनर, कोई ऐसा उधम न जानते थे जिस पर उन्हें भरोसा होता। यहाँ तक कि साधारण क्रय-विक्रय भी उनके लिए कष्टसाध्य था। वे अपने को इस नौकरी के सिवा और किसी काम के योग्य न पाते थे। और न अब इतनी सामर्थ्य ही थी कि कोई नया उधम सीख सकें। स्वार्थ और कर्तव्य की उलझन में उनकी अत्यन्त करुण दशा हो रही थी।

आठवें दिन उन्हें यह खबर मिली कि इस इलाके में मादक वस्तुओं का निषेध करने के लिए किसानों की एक पंचायत होने वाली है, उपदेश होंगे, भजन गाये जायँगे और लोगों से मद-त्याग की प्रतिज्ञा ली जायगी। हरिबिलास मानते थे कि नशे के व्यसन से देश का सर्वनाश हुआ जाता है, यहाँ तक कि नीची श्रेणी के मनुष्यों को तो इसने अपना गुलाम ही बना लिया है, अतएव इसका बहिष्कार सर्वथा स्तुत्य है। पहले एक बार मादक-वस्तु-विभाग में रह चुके थे और उनके समय में इस विभाग की आमदनी खूब बढ़ गयी थी। उस वक्त इस प्रश्न को वे अधिकारियों की आँखों से देखते थे। टेम्परेन्स के उपदेशकों को सरकार का विरोधी समझते थे। लेकिन इस लाल फीतेवाले आज्ञापत्र ने उनकी काया ही पलट दी थी। सरकारी प्रजा-हित-नीति पर उन्हें लेशमात्र भी विश्वास न रहा था इस आज्ञा के अनुसार उनका कर्तव्य था कि जाकर इस पंचायत की कार्रवाइयों को देखें और यदि इस त्याग के लिए किसी के साथ सख्ती या तिरस्कार करते पायें तो तुरन्त उसे बन्द कर दें। मनुष्योचित और पदोचित कर्तव्यों में घोर संग्राम हो रहा था। इसी बीच में हल्के का दारोगा कई सशस्त्र कान्सटेबलों और चौकीदारों के साथ आ पहुँचा और सलाम करने को हाजिर हुआ। हरिबिलास उसकी सूरत देखते ही लाल हो गये, जैसे फूस में आग लग जाय। कठोर स्वर से बोले, आप यहाँ कैसे आये?

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