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प्रेम चतुर्थी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8580
आईएसबीएन :978-1-61301-178

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दारोगा–हुजूर को इस पंचायत की इत्तिला तो मिली ही होगी। वहाँ फिसाद होने का खौफ है। इसलिए हुजूर की खिदमत में हाजिर हुआ हूँ।

हरिबिलास–मुझे इसका कोई भय नहीं है। हाँ, आपके जाने से फिसाद हो सकता है।

दारोगा ने विस्मित होकर कहा–मेरे जाने से?

हरिबिलास–हाँ, आपके जाने से। रिआया को आपस में लड़ाकर आप अपना उल्लू सीधा करते हैं। मैं आपके हथकंड़ों से खूब वाकिफ हूँ। आपको मेरे साथ चलने की जरूरत नहीं।

दारोगा–सुपरिटेन्डेन्ट साहब बहादुर का सख्त हुक्म है कि इस मौके पर हुजूर की खिदमत में हाजिर रहूँ।

हरिबिलास–तो क्या आप मुझे नजरबन्द करने आये हैं?

दारोगा ने भयभीत होकर कहा–हुजूर की शान में मुझसे ऐसी …

हरिबिलास–मैं तुम्हारे साहब का गुलाम नहीं हूँ।

दारोगा–तो मेरे लिए क्या आर्डर होता है?

हरिबिलास–जाकर अपने साफे को जला डालिए और वरदी को फाड़कर फेंक दीजिए और इस गुलामी की जंजीर को, जो आपकी कमर में है और जिसे आप हुकूमत का निशान समझते हैं, तोड़कर आजाद हो जाइए। सरकारी हुक्मों की बहुत तामील कर चुके। डाके और चोरी की तफतीश खूब की और हराम का माल खूब जमा किया। अब जाकर कुछ दिनों घर बैठिए और अपने पापों का प्रायश्चित कीजिए। रिआया की जान व माल हिफाजत करने का स्वांग भरकर उनको अजाब में न डालिए। यह किसानों की पंचायत है, लुटेरों का जत्था नहीं है, सब एक जगह बैठकर नशेबाजी बन्द करने की तदबीरें सोचेंगे। आपको मेरे साथ चलने की मुतलक जरूरत नहीं है।

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