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प्रेम चतुर्थी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8580
आईएसबीएन :978-1-61301-178

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बाबू हरिबिलास का मुखमंडल विमल क्रोध से उत्तेजित हो रहा था और आँखों से ज्योति निकल रही थी। दारोगा जी पर रोब छा गया और यह सोचते हुए कि या तो इन्होंने आज शराब पी है या इन पर कोई सख्त सदमा आ पड़ा है, थाने चले गये। ये शब्द बाबू हरिबिलास के अन्तःकरण से निकले थे। यह उनके अन्तिम निश्चय की घोषणा थी। दारोगा जी ने इधर पीठ फेरी उधर उन्होंने अपना इस्तीफा लिखना शुरू किया।

‘‘महाशय! मेरा विश्वास है कि शासन-संस्था ईश्वरी इच्छा का बाह्य स्वरूप है और उसके नियम भी ईश्वरीय नियमों की भाँति दया, सत्य और न्याय पर अवलम्बित हैं। मैंने इसी विश्वास के अधीन २० वर्ष तक सरकार की सेवा की। जब कभी मेरे आत्मिक आदेश और सरकारी हुक्म में विरोध हुआ, मैंने यथासाध्य आत्मा का आदेश पालन किया। मैंने अपने को भी कभी प्रजा का स्वामी नहीं समझा, सदैव सेवक समझता रहा, इसलिए सरकारी पत्र नं. …तारीख …में जो आज्ञा दी गयी है वह मेरी आत्मा और धर्म के इतनी विरुद्ध है, और उसमें न्याय की ऐसी हत्या की गयी है, कि मैं उसका पालन करना घोर पाप समझता हूँ। मेरे विचार में वर्तमान शासन सत्पथ से सम्पूर्णतः विचलित हो गया है। यह आज्ञा के जन्मसिद्ध स्वत्व को छीनना और उनके राष्ट्रीय भावों का वध करना चाहती है। यह इसका प्रत्यक्ष प्रणाम है कि शासकवृन्द प्रजा को अनन्त काल तक मूर्खता और अज्ञान में व्यस्त रखना चाहते हैं और उसकी जागृति से सशंक हैं। वह अपने उत्थान और सुधार के लिए जो प्रयत्न करना चाहती है उसे भी ताड़नीय समझते हैं, ऐसे दुष्कर्म में योग देना अपनी आत्मा, विवेक और जातीयता का खून करना है। अतएव अब मुझे इस राज-संस्था से असहयोग करने के सिवा और कोई उपाय नहीं है। मैं अपना पद-त्याग करता हूँ और प्रार्थना करता हूँ कि मुझे बिना विलम्ब इस बन्धन से मुक्त किया जाय।’’

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