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प्रेम चतुर्थी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8580
आईएसबीएन :978-1-61301-178

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हरिबिलास–मालूम होता है तुम्हें हवा अच्छी तरह लग गयी। रुपयों का क्या प्रबन्ध किया?

शिवबिलास–इसकी आप चिन्ता न कीजिए। मेरे कई मित्रों ने सहायता करने का वचन दिया है।

हरिबिलास–अच्छी बात है, इसका भी मजा चख लो। अभी राजनीति के चक्कर में आये नहीं हो, समझते हो जाति-सेवा जितनी स्तुत्य है उतनी ही सुगम भी है, पर तुम्हें शीघ्र ही अनुभव हो जायगा कि यहाँ पग-पग पर काँटे हैं। मैं ऐसा स्वार्थान्ध और भाव-शून्य नहीं हूँ कि तुम्हारे देशानुराग को दबाना चाहूँ। किन्तु इतना जता देना अपना कर्त्तव्य समझता हूँ कि खूब सोच-समझकर इस क्षेत्र में आना। अगर कुछ दूर चलकर हिम्मत छोड़ दी तो फिर कहीं मुँह दिखाने लायक न रहोगे। मैं तुमसे मदद नहीं चाहता, बल्कि मेरे लिए तो यह परम गौरव की बात है कि मेरा पुत्र देश-सेवा में तल्लीन हो जाय, अपने को जाति पर न्योछावर कर दे, केवल तुम्हें कठिनाइयों से सचेत कर देना चाहता हूँ। तुम कब जाओगे सन्त?

सन्त–मैं १५ जनवरी को जाऊँगा।

हरिबिलास तुम्हें कितने रूपयों की जरूरत होगी। इसी महीने में तो तुम्हें इम्तहान की फीस भी देनी होगी।

सन्त–जी हाँ, कोई ढाई सौ की जरूरत है।

हरिबिलास–(बगलें झाँकते हुए) इससे कम में काम न चलेगा?

सन्त–असम्भव है, ६ महीनों की पेशगी फीस देनी है, इम्तहान की फीस, बोर्डिंग की फीस, सभी तो चुकानी हैं। एक सूट भी बनवाना चाहता हूँ। मेरे पास कोई अच्छा सूट नहीं है।

हरिबिलास–इस समय सूट रहने दो, फिर बनवा लेना, हाँ फीस का प्रबन्ध मैं कर दूँगा। इससे कहाँ मुक्ति? पढ़ो तो मुश्किल से ५ महीने और फीस दो पूरे साल की।

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