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प्रेम चतुर्थी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8580
आईएसबीएन :978-1-61301-178

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सन्त–तो फिर कुछ न दीजिए, मैं स्वयं कोई प्रबन्ध कर लूँगा। आपके ऊपर खामख्वाह बोझ नहीं डालना चाहता।

हरिबिलास–यह तुम्हारी बुरी आदत है कि जरा-जरा-सी बात पर चिढ़ जाते हो। मेरी हालत देख रहे हो, फिर भी तुम्हारी आँखें नहीं खुलतीं।

सन्त–तो क्या आपकी इच्छा है कि मैं भी कालेज से नाम कटा लूँ।

हरिबिलास–यह तो मेरी इच्छा नहीं है, लेकिन अब तुम्हें अवस्थानुसार अपना खर्च घटाना पड़ेगा। मुझे यह देखकर खेद होता है कि वर्तमान दशाओं का तुम्हारे ऊपर बिलकुल असर नहीं हुआ। आज-कल समस्त देश सरल जीवन की ओर झुका है। कोई मनुष्य अपने ठाटबाट, टीमटाम पर गर्व करने का साहस नहीं कर सकता। रेशमी वस्त्र और डासन के जूते और सुनहरे चश्में अब तुच्छ दृष्टि से देखे जाते हैं। विशेषतः शिक्षित समुदाय के विलास-प्रेम को तो जनता सर्वथा अक्षम्य समझती है। शिक्षित लोगों से अब सेवा और उत्सर्ग की आशा की जाती है। वकीलों पर अब सम्मान की दृष्टि नहीं पड़ती, लोग उनसे विमुख होते जा रहे हैं। धनलोलुप अध्यापकों को तो जनता घृणा की निगाह से देखती है। मैंने सेवार्थवश तुम्हें वकालत की प्रेरणा की थी, किन्तु अब मुझे विश्वास होता जाता है कि हमारी जाति की अवनति का एक मुख्य कारण यही पेशा है। इसकी बदौलत हमारी अदालतों में न्याय सर्वसाधारण के लिए अलभ्य हो रहा है। जब एक-एक पेशी के लिए दो-दो, चार-चार सौ, यहाँ तक कि दो-दो, चार-चार, हजार लिये जातें हैं तो स्पष्ट है कि यह समय या परिश्रम का मूल्य नहीं बल्कि लोगों की ईर्ष्या और दुर्जनता का ब्याज है। जिस पेशे का आधार मानव-दुर्बलताओं पर हो, वह समाज के लिए कभी मंगलकारी नहीं हो सकता। मैं तुम्हारे इरादे में विघ्न नहीं डालना चाहता लेकिन यदि तुम वकालत को न्याय-रक्षा के लिए नहीं, विलास के लिए ग्रहण करना चाहते हो, तो बेहतर है कि तुम इसे तिलांजिल दे दो।

सन्तबिलास ने कुछ उत्तर न दिया। खिन्न होकर वहाँ से उठ गये। तब बाबू हरिबिलास ने श्रीबिलास से पूछा, तुम तो इम्तहान की तैयारी कर रहे हो।

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