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प्रेम चतुर्थी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8580
आईएसबीएन :978-1-61301-178

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चौधरी के उपदेश सुनने के लिए जनता टूटती थी, लोगों को खड़े होने की जगह न मिलती। दिनों-दिन चौधरी का मान बढ़ने लगा; उनके यहाँ नित्य पंचायतों और राष्ट्रोन्नति की चर्चा रहती। जनता को इन बातों में बड़ा आनन्द और उत्साह होता। उसके राजनीतिक ज्ञान की वृद्वि होती। वे अपना गौरव और महत्व समझने लगे, उन्हे अपनी सत्ता का अनुभन होने लगा, निरंकुशता और अन्याय पर अब उसकी त्योरियाँ चढ़ने लगीं। उन्हें स्वतन्त्रा का स्वाद मिला। घर की रुई, घर का सूत, घर का कपड़ा घर का भोजन, घर की अदालत; न पुलिस का भय, न अमलों की खुशामत, सुख और शांति से जीवन व्यतीत करने लगे। कितनों ने ही नशेबाजी छोड़ दी, और सद्भावों की एक लहर-सी दौड़ने लगी।

लेकिन भगत जी इतने भाग्यशाली न थे। जनता को दिनोंदिन उनके उपदेशों से अरुचि होती जाती थी। यहाँ तक कि बहुधा उनके श्रोताओं में पटवारी, चौकीदार, मुदर्रिस और इन्हीं कर्मचारियों के मित्रों के अतिरिक्त और कोई न होता था। कभी-कभी बड़े हाकिम भी आ निकलते और भगत जी का बड़ा आदर-सत्कार करते, जरा देर के लिए भगत जी के आँसू पुँछ जाते। लेकिन क्षण-भर का सम्मान आठों पहर अपमान की बराबरी कैसे करता? जिधर निकल जाते उधर ही उँगलियाँ उठने लगतीं। कोई कहता, खुशामदी टट्टू है, कोई कहता, खुफिया पुलिस का भेदी है। भगतजी अपने प्रतिद्वंद्वी की बड़ाई अपनी लोक-निंदा पर दाँत पीसकर रह जाते थे। जीवन में यह पहला ही अवसर था कि उन्हें सबके सामने नीचा देखना पड़ा। चिरकाल से जिस कुल-मर्यादा की रक्षा करते आए थे, और जिस पर अपना सर्वस्व अर्पण कर चुके थे, वह धूल में मिल गई। यह दाहमय चिन्ता उन्हें क्षण भर के लिए चैन न लेने देती। नित्य यही समस्या सामने खड़ी रहती कि अपना खोया हुआ सम्मान क्योंकर पाऊँ अपने प्रतिपक्षी को क्योंकर पददलित करूँ, उसका गरूर क्योंकर तोड़ूँ?

अंत में उन्होंने सिंह को उसकी माँद में ही पछाड़ने का निश्चय किया। संध्या का समय था। चौधरी के द्वार पर एक बड़ी सभा हो रही थी। आस-पास के गाँवों के किसान भी आ गए थे, हजारों आदमियों की भीड़ थी।

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