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कहानी संग्रह >> प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :225
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8584
आईएसबीएन :978-1-61301-113

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नव जीवन पत्रिका में छपने के लिए लिखी गई कहानियाँ


यही मंत्र था, जो उन्होंने उन चंडालों से सीखा था और इसी के बल से वह अपने धर्म की रक्षा करने में सफल हुए थे।

पंडित जी अभी जीवित हैं; पर अब सपरिवार उसी प्रांत में, उन्हीं भीलों के साथ रहते हैं।

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सती

दो शताब्दियों से अधिक बीत गई हैं, पर चिंतादेवी का नाम चला जाता है। बुंदेलखड के एक बीहड़ स्थान में आज भी मंगलवार को सहस्त्रों स्त्री-पुरुष चिंतादेवी की पूजा करने आते हैं। उस दिन यह निर्जन स्थान सोहने गीतो से गूँज उठता है, देवी का मंदिर एक बहुत ऊँचे टीले पर बना हुआ है उसके कलश पर लहराती हुई लाल पताका बहुत दूर से दिखाई देती है। मंदिर इतना छोटा है कि उसमें मुश्किल से एक साथ दो आदमी समा सकते हैं। भीतर कोई प्रतिमा नहीं है, केवल एक छोटी सी वेदी बनी हुई है। नीचे से मंदिर तक पत्थर का जीना है। भीड़-भाड़ में कोई धक्का खाकर कोई नीचे न गिर पड़े, इसलिए जीने के दोनों तरफ दीवार बनी हुई है। यही चिंता देवी सती हुई थी। पर लोकरीति के अनुसार वह अपने मृत पति के साथ चिता पर नहीं बैठी थी। उनका पति हाथ जोड़े खड़ा था, पर वह उसकी ओर आँख उठाकर भी न देखती थी। वह पति के शरीर के साथ नहीं, उसकी आत्मा के साथ सती हुई। उस चिता पर पति का शरीर न था उसकी मर्यादा भस्मीभूत हो रही थी।

यमुना-तट पर कालपी एक छोटा-सा नगर है। चिंता उसी नगर के एक वीर बुँदेले की कन्या थी। उसकी माता उसकी बाल्यावस्था में ही परलोक सिधार चुकी थी। उसके पालन-पोषण का भार पिता पर पड़ा। वह संग्राम का समय था, योद्वाओं को कमर खोलने की भी फुरसत न मिलती थी, वे घोड़े की पीठ पर भोजन करते और जीन ही पर झपकियाँ ले लेते थे। चिंता का बाल्यकाल पिता के साथ समर भूमि में कटा। बाप उसे किसी खोह या वृक्ष की आड़ में छिपाकर मैदान में चला जाता।

चिंता निःशंक भाव से बैठी हुई मिट्टी के किले बनाती और बिगाड़ती। उसके घरौंदे किले होते थे, उसकी गुड़ियाँ ओढ़नी न ओढ़ती थी। वह सिपाहियों के गड्डे बनाती और उन्हें रणक्षेत्र में खड़ा करती थी। कभी-कभी उसका पिता संध्या समय भी न लौटता, पर चिंता को भय छू तक न गया था। निर्जन स्थान में भूखी-प्यासी रात-रात भर बैठी रह जाती। उसने नेवले और सियार की कहानियाँ कभी न सुनी थी। वीरों के आत्मोत्सर्ग की कहानियाँ और वह भी योद्धाओं के मुँह से, सुन-सुनकर वह आदर्शवादिनी बन गयी थी।

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