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कहानी संग्रह >> प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :225
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8584
आईएसबीएन :978-1-61301-113

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नव जीवन पत्रिका में छपने के लिए लिखी गई कहानियाँ


कैलास ने और कोई प्रश्न नहीं किया। उसे अपने पराभव का दुःख न था, दुःख था नईम की आत्मा के पतन का। वह कल्पना भी न कर सकता था कि कोई मनुष्य अपने मुँह से निकली हुई बात को इतनी ढिठाई से अस्वीकार कर सकता है, और वह भी उसी आदमी के मुँह पर, जिससे यह बात कही गई हो यह मानवी दर्बलता की पराकाष्ट है। वह नईम जिसका अन्दर और बाहर एक था जिसके विचार और व्यवहार में भेद न था, जिसकी वार्णी आंतरिक भावों का दर्पण थी, वह नईम वह सरल आत्माभिमानी, सत्यभक्त नईम, इतना धूर्त, ऐसा मक्कार हो सकता है! क्या दासता के साँते में ढलकर मनुष्य अपना मनुष्यत्व भी खो बैठता है? क्या यह दिव्य गुर्णो के रूपांतरित करने का यंत्र है?

अदालत ने नईम को २॰ हजार रूपयों की डिक्री दे दी। कैलास पर मानो वज्रपात हो गया।

इस निश्चय पर राजनीतिक संसार में फिर कुहराम मचा। सरकारी पक्ष के पत्रो ने कैलास को धूर्त कहा, जन-पक्षवालों ने नईम को शैतान बनाया। नईम के दुस्साहस ने न्याय की दृष्टि में चाहे उसे निरपराध सिद्ध कर दिया हो, पर जनता की दृष्टि में तो उसे और भी गिरा दिया। कैलास के पास सहानुभूति के पत्र और तार आने लगे। पत्रों में उसकी निर्भीकता और सत्यनिष्ठा की प्रशंसा होने लगी! जगह-जगह सभाएँ और जलसे हुए और न्यायालय के निश्चय पर असंतोष प्रकट किया गया। कितुं सूखे बादलों से पृथ्वी की तृप्ति तो नहीं होती।

रुपये कहाँ से आवें, और वह भी एकदम से २॰ हजार। आर्दश-पालन का यही मूल्य है, राष्ट्र सेवा महँगा सौदा है। २॰ हजार! इतने रुपये तो कैलास ने शायद स्वप्न में भी नहीं देखे हों, और अब देने पड़ेगे। कहाँ से देगा? इतने रूपयों के सूद से ही वह जीविका की चिंता से मुक्त हो सकता था। उसे अपने पत्र में अपनी विपत्ति का रोना रोकर चन्दा एकत्र करने से घृणा थी। मैंने अपने ग्राहकों को अनुमति लेकर इस शेर से मोरचा नहीं लिया था। मैंनेजर की वकालत करने के लिए किसी ने मेरी गर्दन नहीं दबाई थी। मैंने अपना कर्तव्य समझकर ही शासकों को चुनौती दी। जिस काम के लिए मैं अकेला जिम्मेदार हूँ, उसका भार अपने ग्राहकों पर क्यों डालूँ? यह अन्याय है। सम्भव है, जनता में आंदोलन करने से दो-चार हजार रुपये हाथ आ जाएँ, लेकिन यह सम्पादकीय आदर्श के विरुद्ध है। इससे मेरी शान में बट्टा लगता है। दूसरों को यह कहने का क्यों अवसर दूँ कि और के मत्थे फुलोड़ियाँ खायी, तो क्या बड़ा जग जीत लिया! जब जानते कि अपने बल-बूते पर गरजते! निर्भीक आलोचना का सेहरा तो मेरे सिर पर बँधा उसका मूल्य दूसरों से क्यों वसूल करूँ? मेरा पत्र बन्द हो जाए, मैं पकड़कर कैद किया जाऊँ, मेरा मकान कुर्क कर दिया जाए, बरतन-भाँड़े नीलाम हो जाएँ, यह सब मुझे मंजूर है। जो कुछ सिर पड़ेगा, भुगत लूगाँ, पर किसी के सामने हाथ न फैलाऊँगा।

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