कहानी संग्रह >> प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह) प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ
सेठजी ने समझ लिया कि इस समय समझाने-बुझाने से कुछ काम न चलेगा। कागजात देखे, अभियोग चलाने की तैयारियाँ होने लगीं।
मुंशी सत्यनारायण लाल खिसियाए हुए मकान पहुँचे। लड़के ने मिठाई माँगी। उसे पीटा। स्त्री पर इसलिए बरस पड़े कि उसने क्यों लड़के को उनके पास जाने दिया। अपनी वृद्घा माता को डाँटकर कहा–तुमसे इतना भी नहीं हो सकता कि जरा लड़के को बहलाओ। एक तो मैं दिन-भर का थका-मांदा घर आऊँ और फिर लड़के को खिलाऊँ? मुझे दुनिया में न और कोई काम है, न धंधा!
इस तरह घर में बावेला मचाकर वह बाहर आये और सोचने लगे–मुझसे बड़ी भूल हुई! मैं कैसा मूर्ख हूँ? इतने दिन तक सारे कागज-पत्र अपने हाथ में थे। जो चाहता कर सकता था। पर हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा। आज सिर पर आ पड़ी, तो सूझी! मैं चाहता, तो बही-खाते सब नए बना सकता था, जिसमें इस गाँव का और इस रुपये का जिक्र ही नहीं होता। पर मेरी मूर्खता के कारण घर में आयी हुई लक्ष्मी रूठी जाती है। मुझे मालूम था कि वह चुड़ैल मुझसे इस तरह पेश आएगी और कागजों में हाथ तक न लगाने देगी।
इसी उधेड़-बुन में मुंशीजी यकायक उछल पड़े। एक उपाय सूझ गया–क्यों न कार्यकर्ताओं को मिला लूँ। यद्यपि मेरी सख्ती के कारण वे सब मुझसे नाराज थे और इस समय सीधे से बात न करेंगे, तथापि उनमें ऐसा कोई भी नहीं, जो प्रलोभन से मुट्ठी में न आ जाय। हां, इसमें रुपया पानी की तरह बहाना पड़ेगा। पर इतना रुपया आए कहां से? हाय दुर्भाग्य! दो-चार दिन पहले चेत गया होता, तो कठिनाई न पड़ती। क्या जानता था कि वह डाइन इस तरह वज्र-प्रहार करेगी? बस-अब एक ही उपाय है। किसी तरह वे कागजात गुम कर दूँ। बड़ी जोखिम का काम है, पर करना ही पड़ेगा।
दुष्कामनाओं के सामने एक बार सिर झुकाने पर फिर सँभलना कठिन हो जाता है। पाप के अथाह दलदल में जहाँ एक बार पड़े कि फिर प्रति क्षण नीचे ही चले जाते हैं। मुंशी सत्यनारायण-सा विचारशील मनुष्य इस समय इस फिक्र में था कि कैसे सेंध लगा पाऊँ? मुंशीजी ने सोचा–क्या सेंध आसान है? इसके वास्ते कितनी चतुरता साहस, कितनी बुद्धि, कितनी वीरता चाहिए! कौन कहता है कि चोरी करना आसान काम है? मैं जो कहीं पकड़ा गया, तो डूब मरने के सिवा और कोई मार्ग ही नहीं रहेगा।
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